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आधार कार्ड पर फैसला : निजता की जीत और सरकार की हार के मायने..!

सुप्रीम कोर्ट: फाइल फोटो: फोटो: supremecourtofindia.nic.inसुप्रीम कोर्ट: फाइल फोटो: फोटो: supremecourtofindia.nic.in

 

सुप्रीम कोर्ट: फाइल फोटो: फोटो: supremecourtofindia.nic.in
सुप्रीम कोर्ट: फाइल फोटो: फोटो: supremecourtofindia.nic.in

सुप्रीम कोर्ट के नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में निजता के अधिकार को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार घोषित कर दिया। इसका असर दूरगामी होगा। मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ ने कहा कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अंतर्भूत हिस्सा है। फैसले में पीठ ने शीर्ष अदालत के उन दो पुराने फैसलों को खारिज कर दिया, जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था। यही फैसले निजता के अधिकार की राह में दीवार बन रहे थे।

ताजा फैसले में आधार कार्ड को वित्तीय लेन-देन संबंधी मामलों में अनिवार्य किए जाने के सवाल पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है। इस सिलसिले में यह मसला इसलिए अहम है कि निजता के अधिकार को लेकर बहस ही तब उठी, जब सरकार ने आधार कार्ड को कल्याणकारी सामाजिक योजनाओं के लिए जरूरी किया। यहां तक कि आयकर रिटर्न भरने, बैंकों में खाता खोलने, ऋण लेने, पेंशन पाने और वित्तीय लेन-देन में आधार कार्ड को अनिवार्य बना दिया। याचिकाकर्ताओं ने आधार को निजता के अधिकार में दखलंदाजी बताते हुए अनिवार्यता खत्म करने की मांग की थी।

दरअसल, इस मुद्दे के बीच सवाल उठा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है भी या नहीं। मामला पहले तीन जजों के खंडपीठ के पास गया। फिर इसकी सुनवाई के लिए पांच जजों के खंडपीठ का और अंत में 18 जुलाई को नौ सदस्यीय संविधान पीठ का गठन हुआ। इस पीठ ने नियमित सुनवाई करके पिछले 2 अगस्त को निर्णय सुरक्षित रख लिया था। सुनवाई के दौरान कई रोचक दलील भी दी गर्इं। जैसे कि पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने यह तर्क दिया था कि नागरिक के शरीर पर स्वयं उसका नहीं, राज्य का अधिकार है। इस दलील को लेकर अदालत के बाहर भी काफी चर्चा हुई। संविधान पीठ में भी अंतिम फैसला सुनाने से पहले, कई बार दुविधा देखी गई।

अब जबकि फैसला आ गया है, तब भी कई सवाल हैं, जिनकी व्याख्या की जानी है। कुछ विशेषज्ञों और कई विपक्षी दलों ने कहा कि इस फैसले से सरकार की ‘निगरानी रणनीति’ को झटका लगा है। अब कोई भी नागरिक अपना आधार कार्ड बनवाने से इनकार भी कर सकता है, क्योंकि सबसिडी का लाभ पाने के लिए आधार जरूरी नहीं है। जबकि विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने फैसले को अपने पक्ष में बताया है।

वैसे देखा जाए तो इस फैसलेे के बीच इस अभी सरकार और आधार कार्ड को अनिवार्य करने के विरोधियों के बीच असमंजस और खींचतान बना रह सकता है, क्योंकि सरकार के अपने तर्क हैं और उसका कहना है कि जनकल्याण और जन सुरक्षा के लिए आधार जरूरी है। बावजूद इसके यह कह सकते हैं कि कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में सर्वसम्मत से निजता के अधिकार को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल करके प्रगतिशीलता की ओर एक और दृढ़ कदम उठाया है।

यकीनन संविधान के अनुच्छेद 21 में मौलिक अधिकारों का प्रावधान है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ नत्थी है। मतलब ये कि निजता का अधिकार नैसर्गिक रूप से मौलिक अधिकारों में अंतरनिहित है। शीर्ष अदालत के इस फैसले को इस मायने में प्रगतिशील कहा जाना चाहिए कि इसने अपने ही पूर्ववर्ती फैसले को पलटने में जरा भी हिचकिचाहट महसूस नहीं कि जिनमें निजता के अधिकार को मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया था।

हालांकि पीठ ने सिर्फ निजता के अधिकार पर फैसला सुनाया है और आधार निजता के अधिकार का हनन कर रहा है या नहीं, इस पर तीन जजों की बेंच अलग से सुनवाई करेगी। फिर भी यह फैसला आंशिक तौर पर आधार के दायरे को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया को प्रभावित तो कर ही सकती है, क्योंकि अब कोई सरकारी या निजी एजेंसी यदि आधार से जुड़ी या कोई निजी जानकारी मांगती है तो इस पर आपत्ति दर्ज की जा सकती है। कोई व्यक्ति आपके निजी जीवन में दखल दे रहा है तो उसके खिलाफ अदालत में याचिका पेश की जा सकती है।

इससे पहले भी केन्द्र की मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट से कई बार झटके लगे हैं। इसी अगस्त के महीने में सुप्रीम कोर्ट में काटने के लिए पशुओं की खरीद बिक्री पर बैन के अपने फैसले का केंद्र सरकार बचाव नहीं कर पाई थी। केंद्र के इस फ़ैसले पर मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच ने रोक लगा दी थी और सुप्रीम कोर्ट ने मदुरै बेंच के फ़ैसले को पूरे देश में लागू कर दिया था।

इधर जुलाई, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने के केंद्र के फ़ैसले को पलट दिया था। अरुणाचल में राजनीतिक गतिरोध का हवाला देते हुए केंद्र ने 24 जनवरी, 2016 को वहां राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी। इसे कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। अरुणाचल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ अर्से पहले उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने का मामला बड़ी अदालत में पहुंचा था। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने के फ़ैसले का मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में बचाव नहीं कर पाई थी। मई, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटाते हुए हरीश रावत की सरकार फिर से बहाल कर दी थी।

मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए 2014 में संविधान संशोधन किया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर, 2015 में सरकार की दलील ख़ारिज करते हुए एनजेएसी एक्ट को असंवैधानिक क़रार दे दिया। बहरहाल, निजता वाले मुद्दे पर कानून के जानकार विराग गुप्ता बताते हैं कि संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार के प्रावधान हैं, जिन्हें डॉक्टर अंबेडकर ने संविधान की आत्मा बताया था। अनुच्छेद-21 में जीवन तथा स्वतन्त्रता का अधिकार है।

सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मामलों में निर्णय देकर शिक्षा, स्वास्थ्य, जल्द न्याय, अच्छे पर्यावरण आदि को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है। संविधान के अनुच्छेद-141 के तहत सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला देश का क़ानून माना जाता है, और अब प्राइवेसी भी मौलिक अधिकार का हिस्सा बन गई है। मौलिक अधिकार होने के बाद कोई भी व्यक्ति हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका दायर करके न्याय की मांग कर सकता है।  खैर, निजता वाले मसले पर हुई सरकार की हार के बाद क्या होता है, यह देखने वाली बात होगी।

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