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जातिवाद और दलित उत्पीड़न में बिहार-यूपी से भी आगे है एमपी, शर्मसार करते हैं आंकड़े  

Old Man . Image Source: Pixabay.com Old Man . Image Source: Pixabay.com
Road side old man. Symbolic Image caste system in Madhya pradesh. Image Source: Pixabay.com
Road side old man. Symbolic Image caste system in Madhya pradesh. Image Source: Pixabay.com

आजादी के 71वें साल में जून की एक आधी रात को संसद के सेंट्रल हॉल में बुलाए गए एक विशेष-सत्र में इस बात की आधिकारिक घोषणा कर दी गई है कि भारत “एक बाजार” हो गया है. वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की लॉन्चिंग के दौरान दिए गए अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने दावा किया कि “जीएसटीए केवल कर सुधार नहीं बल्कि आर्थिक सुधार के साथ सामाजिक सुधार का भी प्लेटफॉर्म है”. यह अलग से बहस का मुद्दा हो सकता है कि जीएसटी से कौन सा सुधार और किसका भला होने वाला है, लेकिन इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि आजादी के करीब सात दशक बीत जाने के बावजूद जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न की जड़ें अभी भी बदस्तूर कायम हैं.

इस दौरान इस देश ने कई अमूलचूल परिवर्तन देखे हैं, राज्य, समाज और अर्थव्यवस्था का पूरा नक्शा ही बदल चुका है, लेकिन जाति व्यवस्था एक ऐसी बला है जिस पर इन तमाम परिवर्तनों के कोई खास असर देखने को नहीं मिलता है. जाति संरचना ने इन तमाम  बदलावों के साथ सामंजस्य बैठाते हुए अपने मूल प्रकृति को कायम रखा है और आज भी पूरे भारतीय समाज पर हावी है. दरअसल भारत में दलितों के उत्पीड़न का सदियों पुराना इतिहास है और यही वर्तमान भी है.

बाबा साहेब अम्बेडकर ने बहुत पहले ही बता दिया था कि “जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके लिए बेमानी है. लेकिन दुर्भाग्य से हमारे समाज में महात्मा फुले और बाबा साहेब अम्बेडकर के बाद कोई ऐसा बड़ा समाज सुधारक सामने नहीं आया जो जाति के विनाश की बात करता हो. सामाजिक मुक्ति की सारी लड़ाई “पहचान” “चुनावी गणित”  और “आरक्षण” जैसे मुद्दों तक सिमट गई है. नतीजे के तौर पर हम देखते हैं कि 21वीं सदी में आर्थिक रूप से तेजी से आगे बढ़ रहा भारत सामाजिक रूप से अभी भी सदियों पीछे है. देश की कुल आबादी करीब 17 प्रतिशत दलित आज भी समाज में छुआछूत हर स्तर पर भेदभाव, हिंसा और उत्पीड़न सहने को मजबूर हैं. नये भारत के निर्माण के आहटों के बीच उनकी मायूसी और भय और बढ़ गई है.

मध्य प्रदेश को अमूमन शांति का टापू कहा जाता है, लेकिन शायद इसकी वजह यहां प्रतिरोध का कमजोर होना है. दरअसल, मध्य प्रदेश में सामंतवाद और जाति उत्पीड़न की जड़ें बहुत गहरी हैं. यह सूबा वंचित समुदायों के उत्पीड़न के मामलों में कई वर्षों से लगातार देश के शीर्ष राज्यों में शामिल रहा है. नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) और अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड द्वारा किए गए एक स्टडी के अनुसार छुआछूत को मानने के मामले में मध्य प्रदेश पूरे देश में शीर्ष पर है. सर्वे के अनुसार मध्य प्रदेश में 53 फीसद लोगों ने कहा कि वे छुआछूत को मानते हैं.

चौंकाने वाली बात यह रही की उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेश भी इस सूची में मध्य प्रदेश से पीछे है. आज भी सूबे के ग्रामीण क्षेत्रों में बाल काटने से मना कर देना, दुकानदार द्वारा दलितों को अलग गिलास में चाय देना, शादी में घोड़े पर बैठने पर मारपीट करना, मरे हुए मवेशियों को जबरदस्ती उठाने को मजबूर करना आदि जैसी घटनाऐं बहुत आम हैं.

2014 में गैर-सरकारी संगठन “दलित अधिकार अभियान” द्वारा जारी रिपोर्ट “जीने के अधिकार पर काबिज छुआछूत” से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश में भेदभाव की जड़ें कितनी गहरी हैं. मध्य प्रदेश के 10 जिलों के 30 गांवों में किए गए सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि इन सभी गावों में लगभग सत्तर प्रकार के छुआछूत का प्रचलन है. भेदभाव के कारण लगभग 31 प्रतिशत दलित बच्चे स्कूल में अनुपस्थित रहते हैं. इसी तरह से अध्यन किए गए स्कूलों में 92 फीसदी दलित बच्चे खुद पानी लेकर नहीं पी सकते, क्योंकि उन्हें स्कूल के हैंडपंप ओर टंकी छूने की मनाही है जबकि 93 फीसदी अनुसूचित जाति के बच्चों को आगे की लाइन में बैठने नहीं दिया जाता है ,42 फीसदी बच्चों को  शिक्षक जातिसूचक नामों से पुकारते हैं ,44 फीसदी बच्चों के साथ गैर दलित बच्चे भेदभाव करते हैं ,82 फीसदी बच्चों को मध्यान्ह भोजन के दौरान अलग लाइन में बिठाया जाता है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के हालिया आकड़ों पर नजर डालें तो 2013 और 2014 के दौरान मध्य प्रदेश दलित उत्पीड़न के दर्ज किए गए मामलों में चौथे स्थान पर था. 2015 में भी यह सूबा पांचवें  स्थान पर बना रहा. यह तो केवल दर्ज मामले हैं. गैरसरकारी संगठन “सामाजिक न्याय एवं समानता केन्द्र” द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार प्रदेश में दलित उत्पीड़न के कुल मामलों में से 65 प्रतिशत मामलों की एफ.आई.आर ही नहीं दर्ज हो पाती है. दूसरी तरह मामलों में से केवल 29 फीसद दर्ज मामलें में ही सजा हो पाती है.

दूसरी तरफ अगर समुदाय की तरफ से इसका प्रतिरोध होता है तो उसे पूरी ताकत से दबाया जाता है. 2009 में नरसिंहपुर जिले के गाडरवारा में अहिरवार समुदाय के लोगों ने सामूहिक रूप से यह निर्णय लिया था कि वे मरे हुए मवेशी नहीं उठाएंगें क्योंकि इसकी वजह से उनके साथ छुआछूत व भेदभाव का बर्ताव किया जाता है. लेकिन दबंग जातियों को उनका यह फैसला रास नहीं आता है और इसके जवाब में करीब आधा दर्जन गावों में पूरे अहिरवार समुदाय पर सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया जाता है, उनके साथ मार-पीट की जाती है और उनके सार्वजनिक स्थलों के उपयोग जैसे सार्वजनिक नल, किराना की दुकान से सामान खरीदने, आटा चक्की से अनाज पिसाने, शौचालय जाने के रास्ते और अन्य दूसरी सुविधाओं के उपयोग पर जबर्दस्ती रोक लगा दी गई जाती है.

पिछले फरवरी में ग्वालियर की एक घटना है, जहां अंबेडकर विचार मंच द्वारा ‘बाबा साहेब के सपनों का भारत” विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें जेएनयू के प्रो.विवेक कुमार भाषण देने के लिए आमंत्रित किए गए थे. इस कार्यक्रम में हिन्दूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अंदर घुसकर हंगामा किया. इस दौरान कई लोग चोटिल भी हुए.

मध्य प्रदेश देश उत्तर भारत का एक ऐसा राज्य है, जहां सामाजिक न्याय की राजनीति अपनी जड़ें नहीं जमा सकी हैं. दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की पर्याप्त आबादी होने के बावजूद उनकी कोई अलग राजनीतिक पहचान नहीं बन सकी है और ना ही यूपी बिहार की तह यहां कोई तीसरी धारा ही पनप सकी है.

आज भी सूबे पूरी राजनीति कांग्रेस और भाजपा के बीच सिमटी है. इन दोनों पार्टियों ने प्रदेश के दलित   आदिवासी समुदाय में कभी राजनीतिक नेतृत्व उभरने ही नहीं दिया और अगर कुछ उभरे भी तो उन्हें आत्मसात कर लिया. एक समय फूल सिंह बरैया जरूर अपनी पहचान बना रहे थे, लेकिन उनका प्रभाव लगातार कम हुआ है. ओबीसी समुदायों की भी कमोबेश यही स्थिति है. यहां से सुभाष यादव, शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती जैसे नेता निकले जरूर. चौहान व भारती जैसे नेता सूबे की राजनीति में शीर्ष पर भी पहुंचे हैं, लेकिन यूपी और बिहार की तरह उनके उभार से पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण नहीं हुआ है. इस तरह से प्रदेश में आदिवासी, दलित और ओबीसी की बड़ी आबादी होने के बावजूद यहां की  राजनीति पर इन समुदायों का कोई ख़ास प्रभाव देखने को नहीं मिलता है. यही वजह है कि जाति उत्पीड़न की तमाम घटनाओं के बावजूद ये राजनीति के लिए कोई मुद्दा नहीं बनता है.

हम ने जाति उत्पीड़न के खिलाफ कानून तो बहुत पहले बना लिया था, लेकिन ये नाकाफी है क्योंकि  इसकी जड़ें तो पूरे समाज में हैं और समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी मनु के बनाए गए कानूनों को बड़ी गंभीरता से अमल कर रहा है और इसके लिए मरने-मारने पर आमादा है. बाबा साहेब आंबेडकर जाति आधारित उत्पीड़न और भेदभाव के लिए जाति व्यवस्था को जिम्मेदार मानते थे. उनका कहना था कि राजनीतिक रूप से आजाद होने के बावजूद भारतीय दो अलग-अलग विचारधाराओं संचालित हैं एक तो राजनीतिक आदर्श है, जो संविधान के प्रस्तावना में इंगित हैं और जिसमें स्वतंत्रता, समानता, और भाई-चारे जैसी बातें है और दूसरी तरफ धर्म आधारित सामाजिक आदर्श हैं जिनका इन मूल्यों से टकराहट है.

दुर्भाग्य से आज पूरे भारतीय समाज में ऐसी कोई राजनीतिक-सामाजिक ताकत नहीं है जो जाति-विहीन समाज की बात करती हो. आजादी के सत्तर साल बाद भी हमें ऐसे नेतृत्व का इंतेजार है जो किसी आधी रात को संसद के सेंट्रल हॉल में विशेष सत्र बुलाकर जाति मुक्त भारत का आह्वान करे.

 

By जावेद अनीस

वरिष्ठ स्तंभकार

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