आपने अक्सर शहरों के रेलवे प्लेटफॉर्म पर बोझ ढोते, जूते पॉलिश-करते, होटलों में जूठे बर्तन धोते व घरों में नौकरों के रूप में काम करते बच्चों को देखा होगा. कभी जानने की कोशिश की है कि ये बच्चे कहां से आते हैं? कौन है ये बच्चे? कैसे जीते हैं और कहां होता है इनका भविष्य?
दरअसल, ये वो बच्चे हैं जो आज पूरी दुनिया में अपना बचपन बेचने को मजबूर हैं. ये भारत सहित पूरी दुनिया में परिवार की रोजी-रोटी में हिस्सा बंटाने के लिए रोज 10 से 14 घंटे तक मजदूरी करते हैं. बदले में इन्हें बहुत कम मजदूरी मिल पाती है. खेलने खाने के दिनों में ये बच्चे परिवार का एक मजबूत सहारा बन जाते हैं. ऐसे बाल मजदूर मुख्यतः शहरों में मिल जाते हैं. छोटे-मोटे कारखानों व उद्योगों में भी ये बच्चे कार्य करते नजर आ जाते हैं, जहां न तो काम के घंटे निश्चित होते हैं, न ही वेतन.
पूरी दुनिया में चिंता का विषय
एक सुंदर जीवन जीने की लालास के बीच ऐसे मजदूर बच्चों के भविष्य की चिंता पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है. कई संस्थाएं और सरकारें इनका भविष्य बनाने के लिए प्रयासरत हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया है. हालांकि हमारे देश में केंद्र और राज्य सरकारें जोर-शोर से 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का पता विभिन्न कार्य क्षेत्रों में सर्वे के माध्यम से लगा रही हैं और आवश्यकतानुसार कार्यवाही भी जारी है, लेकिन बाल-कल्याण के ऐसे अभियान इस दिशा में कोरे हथियार ही साबित हो रहे हैं.
यूनिसेफ की रिपोर्ट की कहानी
यूनिसेफ की रिपोर्ट के आधार पर दुनिया के बच्चों की स्थिति देखी जाए तो बाल मजदूरी पर लगाए गए तमाम प्रतिबंध कोरी कागजी कार्यवाही ही साबित हुए हैं. हालांकि ऐसे उद्योगों में जहां कम उम्र के बच्चे खतरनाक कार्य कर रहे हैं, दबाव पड़ने पर निकाल अवश्य दिए गए हैं लेकिन आर्थिक मजबूरी इन्हें पहले से भी ज्यादा खतरनाक उद्योगों में खींच ले गई. कुल मिलाकर दुनिया भर की सरकारें कानून की मदद से भी इन बच्चों को खतरनाक उद्योगों से निजात व मुक्ति नहीं दिला पाई हैं, बल्कि उनके बनाये कानून पूरी तरह से असफल हुए हैं. यूनिसेफ की रिपोर्ट में खतरनाक उद्योग धंधों में लगे बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन व मानवीय सभ्यता के विरूद्ध अपराध की संज्ञा दी गई है.
हर देश का बचपन नीलाम
समूची दुनिया में चाहे अमेरिका हो या कोई अन्य यूरोपीय देश अथवा एशिया महाद्वीप, हर देश का गरीब बच्चा जहां नाजुक उम्र में कठोर से कठोर कार्य करने को विवश है, वहीं छोटी उम्र की नादान बालिकाएं वेश्यालयों में अपने गर्म गोश्त का धंधा कर पेट की भूख मिटाने में लगी हुई हैं. कई मुल्कों में तो छोटे बच्चों के यौन-शोषण का घिनौना कार्य करने में कई संस्थाएं लगी हुई हैं, लेकिन वे कानून की पकड़ से कोसों दूर रहते हैं.
रौंगटे खड़े कर देंगे ये आंकड़े
आज पूरी दुनिया में 14 साल से कम उम्र के 25 करोड़ बच्चे मजदूरी करने को मजबूर हैं, जिनमें 47{4f87ad8c368bc179e2d180453c56a403e7e581457176ed0e8ee6656745545539} अफ्रीका में,16{4f87ad8c368bc179e2d180453c56a403e7e581457176ed0e8ee6656745545539} मिडिल ईस्ट में व नॉर्थ अफ्रीका में, 34{4f87ad8c368bc179e2d180453c56a403e7e581457176ed0e8ee6656745545539} साउथ एशिया में तो 12{4f87ad8c368bc179e2d180453c56a403e7e581457176ed0e8ee6656745545539} लेटिन अमेरिका में, 6{4f87ad8c368bc179e2d180453c56a403e7e581457176ed0e8ee6656745545539} एशिया (पूर्व) और प्रशांत क्षेत्रों में तथा 13 प्रतिशत अन्य राष्ट्रकुल देशों में हैं.
ऐसी है भारत के बचपन की हालत
बाल मजदूरी व बाल शोषण के क्षेत्रों में भारत जैसे प्रगतिशील देश की गिनती सबसे ऊपर है, जहां 15 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं, जिसमें अब भी 3 करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों में कार्यरत हैं. यहां 2 करोड़ बच्चे खेतों में व लघु उद्योगों में बंधुआ मजदूर के तौर पर अपना जीवन बिता रहे हैं. देश में गरीब परिवारों की आमदनी का 23 प्रतिशत भाग उनके बच्चे ही कमाकर दे रहे हैं.
इन खतरनाक उद्योगों में कार्यरत
यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इन बच्चों के जीवन में स्कूली शिक्षा, मनोरंजन व स्वास्थ्य के लिए कोई महत्व नहीं है. भारत में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे माचिस उद्योग, कालीन उद्योग, पटाखा फैक्ट्रियों, माचिस बॉक्स उद्योग, स्लेट व रेशम उद्योग में कार्यरत हैं. इन उद्योगों के मालिक इन बच्चों को जहां बंधक बनाकर रखते हैं, वहीं उनका दैहिक शोषण करने से भी बाज नहीं आते हैं. देश की शिवाकाशी स्थित पटाखा फैक्ट्रियों, फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग, जहां सर्वाधिक जान-जोखिम वाले कार्य होते हैं, में बच्चों की सर्वाधिक दुर्दशा है.
बचपन का दुर्भाग्य और मानवता
समूचे विश्व बाजारों में उत्पादों की तेजी से बढ़ती मांग व औद्योगीकरण के बढ़ते फैलाव से बाल मजदूरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है. इन उद्योगों की आय व बच्चों को दी जाने वाली श्रम राशि में बहुत असमानता है, लेकिन दो वक्त की रोटी की मोहताजगी इन बच्चों को कड़े से कड़ा श्रम करवाने को इस कदर मजबूर कर चुकी है कि ये किसी और दिशा में सोच भी नहीं सकते. भारत जैसे गरीब मुल्क में कम उम्र के बाल मजदूरों को शोषण से मुक्ति दिलाना महज दिवास्वप्न ही है क्योंकि पैसों के बल पर बड़े उद्योगपति कानून के ही रखवालों का मुंह बंद करने में सक्षम रहते हैं.
कहां रहती हैं सरकारेें
बाल मजदूरी को रोकने के प्रयास व बाल कल्याण सुधार जैसे कार्यक्रम सरकारी अफसरों के भरोसे उन कर्मचारियों से सर्वेक्षण करवा कर महज खानापूर्ति ही की जाती है. हालांकि कई बार सरकारी अफसरों के घर से ही बाल मजदूर बरामद हुए हैं, लेकिन लीपापोती कर मामले दबा दिए जाते हैं और बाल मजदूर जस के तस उनके घरों में सस्ते नौकर बने रहते हैं.
बालिका मजदूरों की त्रासदी, मार्मिक कहानी
बाल मजदूरी के क्षेत्र में लड़कों की दुर्दशा तो है ही, वहीं बालिका मजदूर शारीरिक शोषण की दोहरी मार खा रही हैं. उनके साथ जोर जबरदस्ती व बलात्कार जैसे अमानुषिक कार्य भी होते हैं, लेकिन सबसे बड़ी समस्या उनके साथ अवैध गर्भधारण की भी होती है, जिसे भी ले देकर दवा दिया जाता है व अपराधी कानून के शिकंजे में फंसने की बजाय सरेआम घूमते नजर आते हैं.
क्या हो सकते हैं उपाय
यदि विश्व के तमाम देश अंर्तराष्ट्रीय बाल दिवस पर बालश्रम जैसी समस्या का ठोस व रचनात्मक निदान करना चाहते हैं, तो उन्हें लचीली श्रम शक्ति की तलाश में बढ़ती बाल मजदूरी प्रथा के बारे में नये सिरे से सोचना होगा ताकि देश के भावी निर्माता, बच्चों का हर क्षेत्र में शोषण न हो सके. देश की बाल शक्ति की अनदेखी व उपहास की प्रवृत्ति पर अकुंश लगाना होगा, तभी हम एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना कर सकेंगे.
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