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स साल रसायन शास्त्र का “नोबेल” पुरस्कार पाने वाले तीन वैज्ञानिकों ने “अणुओं के संश्लेषण के लिए जैव विकास के सिद्धांतों का उपयोग” विषय पर शोध कर आश्चर्यजनक परिणाम हासिल किए. इस शोध के बाद अणुओं के कई व्यावहारिक उपयोग भी सामने आए हैं. शोध में सुप्त जीन को जगाकर कैंसर तक का इलाज किए जाने के बारे में बताया गया है.

किन को मिला नोबेल पुरस्कार 

पुरस्कार की आधी राशि कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की फ्रांसेस अरनॉल्ड को दी जाएगी. जबकि शेष आधी राशि मिसौरी विश्वविद्यालय के जॉर्ज स्मिथ और एमआरसी लैबोरेटरी ऑफ मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के ग्रेगरी विंटर के बीच बंटेगी.

जीवन की हर क्रिया के लिए उत्तरदायी हैं अणु 

प्रोटीन इंजीनियर अरनॉल्ड कहती हैं कि प्रोटीन वे अणु हैं जो जीवन की हर क्रिया के लिए उत्तरदायी होते हैं. एंज़ाइम भी प्रोटीन ही होते हैं और शरीर की विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका भी निभाते हैं. अरनॉल्ड नए-नए एंज़ाइम बनाना चाहती थीं, जो नए किस्म की रासायनिक क्रियाओं को अंजाम दे सकें.

अरनॉल्ड ने इसके लिए पहले रासायनिक तर्क पर आधारित क्रमबद्ध तरीका अपनाया. उन्होंने पाया कि अमीनो अम्लों की श्रृंखला से बने एंज़ाइम विशाल अणु होते हैं. तार्किक रूप से एंज़ाइम में एक-एक अमीनो अम्ल को बदलकर देखा जा सकता है कि इसका एंज़ाइम की क्रिया पर क्या असर होता है.

यह पता करना मुश्किल होता है कि किसी एक अमीनो अम्ल को बदलने या पूरे अणु के तह होने के बिंदु को एक जगह से हटाकर दूसरी जगह कर देने का कार्य पर क्या असर होगा. गौरतलब है कि एंज़ाइम की क्रिया काफी हद तक इस पर निर्भर करती है कि उसका अणु सही जगहों पर मुड़कर तह बना ले. 

सजीवों में होते हैं लगातार परिवर्तन 

अरनॉल्ड ने अपने शोध के लिए जीव विज्ञान का रुख किया. यहां सजीवों में लगातार परिवर्तन होते हैं और नए-नए अणु बनते हैं. जैव विकास की प्रक्रिया में यह साधारण बात है और अणु बनाने की प्रक्रिया डीएनए के निर्देशन में चलती है. डीएनए के कोड में परिवर्तन होने पर वह परिवर्तन उससे बने अणु में नज़र आता है.

बैक्टीरिया में रोपा गया एंजाइम का जीन  

अरनॉल्ड ने अपने एंज़ाइम का अध्ययन करने के लिए उसे उसके जीन को एक बैक्टीरिया में रोप दिया. बैक्टीरिया का विभाजन होने पर डीएनए की प्रतिलिपि बनाई जाती है और दोनों नई कोशिकाओं को एक-एक प्रतिलिपि मिल जाती है. प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में डीएनए में फेरबदल (उत्परिवर्तन) भी होते हैं.

किसी एंज़ाइम का जीन बैक्टीरिया के डीएनए में डाला जाए तो वह उसकी प्रतिलिपि बनाएगा. प्रतिलिपि बनाने की इस प्रक्रिया में जीन में परिवर्तन होने की काफी संभावना होती है. उसी के अनुरूप एंज़ाइम की रचना में भी परिवर्तन हो जाते हैं. अरनॉल्ड ने बैक्टीरिया की तीसरी पीढ़ी में मूल एंज़ाइम से 200 गुना अधिक असरदार एंजाइम पाया था.

विलियम स्टेमर के लिए भी मिलता नोबेल 

विलियम स्टेमर ने भी अपनी प्रयोगशाला में डीएनए फेंटने नामक तकनीक का सहारा लेकर एक ऐसा ही शोध किया. उन्होंने एक ही जीन के विभिन्न रूप लिए और उनके टुकड़ों को मिलाकर एक नया परिवर्तित रूप तैयार कर लिया. 

स्टेमर भी इस साल नोबेल में शरीक होते लेकिन यह पुरस्कार सिर्फ जीवित व्यक्तियों को दिया जाता है. स्टेमर का साल 2013 में निधन हो गया था. अरनॉल्ड और स्टेमर की इन तकनीकों के इस्तेमाल से डिटरजेंट्स में दाग-धब्बे हटाने वाला एंज़ाइम जोड़ा गया है और जैव-र्इंधन के उत्पादन में भी इनके उपयोग की उम्मीद है.

बैक्टीरिया-भक्षी वायरसों से जीन का क्लोनिंग

स्मिथ और विंटर ने जैविक पदार्थों के संश्लेषण से जुड़ा शोध किया था. हालांकि साल 1980 के दशक में बैक्टीरिया-भक्षी वायरसों के उपयोग से किसी जीन का क्लोनिंग करना संभव हो गया था. जीन क्लोनिंग का मतलब आप कोई जीन किसी बैक्टीरियाभक्षी के जीनोम में जोड़ दें.

जब वायरस किसी बैक्टीरिया को संक्रमित कर वायरस उस बैक्टीरिय़ा की पूरी मशीनरी पर कब्ज़ा कर लेगा. इसके बाद वह अपनी प्रतिलिपियां बनाएगा और साथ-साथ आपके द्वारा जोड़े गए जीन की भी प्रतिलिपियां बन जाएंगी. वायरस दरअसल एक डीएनए होता है जो एक प्रोटीन आवरण में लिपटा होता है.

ज्ञात प्रोटीन के अज्ञात जीन का लगा सकते हैं पता

स्मिथ का सोचना था कि इस तरीके से किसी ज्ञात प्रोटीन के अज्ञात जीन का पता लगाया जा सकता है. उस समय तक जीन्स के कई संग्रह उपलब्ध थे, जिनमें कई जीन्स के खंड रखे जाते थे.

इनमें से कुछ खंडों को जोड़कर एक जीन बनाकर उसे वायरस के जीन से जोड़ दिया जाए. जो उसके आवरण का हिस्सा है तो उस अज्ञात जीन द्वारा बनाया जाने वाला प्रोटीन या प्रोटीन-खंड (पेप्टाइड) उस वायरस की प्रतिलिपियों के बाह्र आवरण पर प्रकट हो जाएगा.

यह करने पर वायरस की जो अगली पीढ़ी बनेगी उनकी सतह पर तमाम प्रोटीन नज़र आएंगे. स्मिथ का विचार था कि इनमें से ज्ञात प्रोटीन या पेप्टाइड वाले वायरस को अलग करने में एंटीबॉडी की मदद ली जा सकेगी. एंटीबॉडी प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन होते हैं, जो किसी विशिष्ट अणु से जुड़ जाते हैं.

स्मिथ ने एक बैक्टीरिया-भक्षी में एक ज्ञात प्रोटीन का जीन जोड़कर उसे बैक्टीरिया को संक्रमित करने दिया. जब वायरस की नई पीढ़ी तैयार हुए तो एंटीबॉडी की मदद से वे मनचाहे वायरस को अलग करने में सफल रहे. चूंकि जोड़े गए जीन का प्रोटीन वायरस के आवरण पर डिस्प्ले होता है, इसलिए इस तकनीक को फेज-डिस्प्ले तकनीक कहा जाता है.

स्मिथ के शोध को विंटर ने पहुंचाया मंज़िल तक

स्मिथ के शोध को मंज़िल तक पहुंचाने का काम विंटर ने किया. स्मिथ की तकनीक का उपयोग करने के तरीके विंटर ने विकसित किए. विंटर ने इस तकनीक का उपयोग करके ऐसी एंटीबॉडीज़ तैयार करने में सफलता प्राप्त की जिनका उपयोग मल्टीपल स्क्लेरोसिस तथा कैंसर जैसी बीमारियों में किया जा सकता है.

विंटर ने स्मिथ की शोध प्रक्रिया में जैव विकास का आयाम जोड़ दिया. उन्होंने कई बैक्टीरियाभक्षी वायरस तैयार किए जिनकी सतह पर अलग-अलग एंटीबॉडी उपस्थित थी. अब इनमें से उन वायरसों को अलग किया गया जो सही लक्ष्य से सबसे मज़बूती से जुड़ते थे.

इसके बाद इन वायरसों को बैक्टीरिया को संक्रमित करके संख्यावृद्धि करने दिया गया और हर बार उनमें से सबसे सशक्त ढंग से लक्ष्य से जुड़ने वाले वायरसों को पृथक किया गया. इस विधि से जो पहली एंटीबॉडी औषधि बनाई गई उसका नाम था एडेलिम्यूनैब.

गठिया व आंतों के शोथ में होता है एडेलिम्यूनैब का उपयोग 

एडेलिम्यूनैब का उपयोग गठिया, सोरिएसिस और आंतों की शोथ के लिए किया जाता है. कुछ एंटीबॉडीज़ का इस्तेमाल कैंसर कोशिकाओं को मारने, ल्यूपस नामक आत्म-प्रतिरक्षा रोग की प्रगति को थामने तथा एंथ्रेक्स में किया जा रहा है. कई अन्य एंडीबॉडीज़ परीक्षण के चरण में हैं.

एक मायने में इन तीनों शोधकर्ताओं ने जैविक संश्लेषण की विधि में वैकासिक आयाम जोड़कर एक नया धरातल तैयार किया है और नोबेल पुरस्कार उनके कार्य में अवधारणात्मक नवीनता तथा सादगी के परिणामस्वरूप दिया गया है.                                                                                                                              (स्रोत फीचर्स)

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