मॉर्डन सोसायटी और प्रोग्रेसिवनेस के इस बदलते परिवेश में महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी योग्यता सिद्ध कर चुकी हैं. बीते कुछ समय में समाज में आए बदलाव और संघर्ष महिलाओं और लड़कियों में अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया है. घूंघट की ओट और घर की चार-दीवारी से बाहर निकल कर महिलाओं ने कई क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज की है. पुरुष प्रधान समाज में अपनी महत्ता दर्शा दी है.
लेकिन संघर्ष से डर क्यों?
बदलाव के बाद भी समाज में सफल लड़कियों और महिलाओं की संख्या गिनी-चुनी है. अन्य महिलाएं इनके जैसा बनना या करना चाहती है, किन्तु बन नहीं पाती क्योंकि राह संघर्षपूर्ण है. संघर्ष के लिए जिजीविषा चाहिए, दृढ़ इच्छा शक्ति, अदम्य साहस व हौंसला चाहिए. कुछ पाने के लिए कुछ खोना अत्यंत आवश्यक है, लेकिन नई लड़कियां और महिलाएं संघर्ष क्यों नहीं करती या करना नहीं चाहती?. हालांकि ऐसा नहीं है नये समाज की लड़कियां और कामकाजी महिलाएं संघर्ष नहीं करतीं, वह संघर्ष करती है और हालात को मोड़ती हैं लेकिन एक हद तक.बाद में वह पीछे हट जाती है और अपने आपको एक निश्चित दायरे के भीतर समेट लेती है, ऐसा क्यों?
डिग्री या जॉब ही मंजिल नहीं
पहले का समय लड़कियों के पढ़ने लिखने तक सीमित था. आज महिलाएं आगे बढ़ीं हैं और पढ़ने लिखने से भी आगे आकर अपने पैरों पर खड़ी है. लेकिन उसका यह सफर डिग्री, जॉब और अपनी फैमिली तक आकर सीमित हो जाता है. जॉब या बिजनेस भी केवल महानगरों तक ही सीमित है. देखा जाए तो छोटे कस्बों, गांवों की लड़कियां तो डिग्री हासिल हो जाने पर वह जॉब या बिजनेस करने की बजाय सिलाई, कढ़ाई या पाक कला जैसे क्षेत्रों तक सीमित होकर रह जाती है.
पारिवारिक जीवन केंद्र
कई महिलाएं संघर्ष तो करती हैं, लेकिन घर-परिवार से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाता. ताने, व्यंग्य, अपमान या कटु वचनों से पाला पड़ने पर वह टूट जाती है. कइयों के पारिवारिक सदस्यों का संकुचित दृष्टिकोण, उनके कदमों को बाहर जाने से रोके रखता हैं. हम 21वीं सदी के मुहाने पर खड़े हैं, किन्तु पुरानी घिसी-पिटी, सामाजिक, रूढि़यों, परंपराओं की बेडि़यों में आज भी महिलाएं जकड़ी हुई है. अनेक लड़कियां अपनी योग्यता, प्रतिभा और कला को ताक पर रख बिसरा देती हैं. वे अपने आपको घर-परिवार के सुखमय जीवन के लिये झोंक देती हैं. अपना सर्वस्व इन्हें पर न्यौछावर कर देती हैं.
कुछ मानती है पढ़ाई-लिखाई को बोर
कई महिलाएं पढ़ाई को बोर मानती हैं. अतः उनसे संघर्ष करने की अपेक्षा उचित नहीं है जबकि शिक्षा अनमोल सम्पति है. एजुकेशन से हम अपने व्यक्तित्व में निखार ला सकते हैं. पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती. लाइफ में कहीं न कहीं इसका सदुपयोग किया जा सकता है.
आज भी है कई उदाहरण
किरण बेदी, अरुंधति रॉय, डायना हेडन, मेघा पाटकर आदि ने सिद्ध कर दी है कि एजुकेटेड महिला कहां पहुंच सकती है और कैसे समाज को बदलने का माद्दा रखती है. संघर्ष को छोड़ने के बजाय गांव कस्बों की लड़कियों को चाहिए कि प्रगति के पथ पर आगे बढ़ती जाएं. इसके लिए चाहे कितनी मुसीबतें, कठिनाइयां बाधाएं क्यों न रास्ते में रोड़ा अटकाएं. महिलाओं और लड़कियों को जूझना होगा और संघर्ष की एक नई राह चुननी होगी, तभी घर-परिवार व समाज के साथ-साथ राष्ट्र को भी महिलाओं का असीमित सार्थक योगदान मिल सकेगा.