गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर महंथ आदित्यनाथ वैसे रहने वाले तो उत्तराखंड के हैं लेकिन वे जिस संत परंपरा से आते हैं, उसका इस देश की सांस्कृतिक संरचना में व्यापक योगदान है. आदित्यनाथ गोरखनाथ परंपरा के संत हैं. यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि नेपाल की राजशाही गोरक्षनाथ के संरक्षण में ही प्रभावशा बनी. नेपाली राज परिवार के साथ एक मिथक जुड़ा हुआ है. नेपाली साम्राज्य के अधिष्ठाता पृथ्वीनाथ शाह को बचपन में एक संत का दर्शन हुआ. उस संत ने अपना जूठन पृथ्वीनाथ शाह को दिया, लेकिन पृथ्वीनाथ शाह ने उसे फेंक दिया और कहा कि मैं क्षत्रीय हूं, किसी का जूठन नहीं खा सकता.
बालक पृथ्वीनाथ शाह के जूठन फेंकने के क्रम में जूठन का थोड़ा सा हिस्सा पृथ्वीनाथ के पैर पर गिर गया. इसपर संत ने कहा कि जा बेटा यदि जूठन खा लेता तो पृथ्वीपति होता, लेकिन जूठन तुम्हाने पैर पर गिरा है और तुम्हारा पैर जहां भी जाएगा वह क्षेत्र तुम्हारा हो जाएगा. इस कहानी में कितनी सत्यतता है पता नहीं, लेकिन पृथ्वीनाथ शाह अपने जीवन में जितने यु़द्ध लड़े उसमें से किसी में उनकी हार नहीं हुई.नेपाल आज भी अजेय है. ऐसा बताया जाता है कि वह संत और कोई नहीं खुद गोरखनाथ थे.राजा पृथ्वीनाथ को दर्शन देने और प्रेरित करने के लिए ही प्रगट हुए थे.
गोरखनाथ को साफ-साफ कहने वाले संतों में शुमार किया जाता रहा है. गोरखनाथ ब्राह्मणवादी सोच के उलट थे और नये प्रकार के सांस्कृतिक क्रांति के अग्रदूत भी थे. इस संप्रदाय में 84 सिद्धों की बात बताई जाती है. कनकपाद, अक्षपाद्, सरहपाद आदि संत इसी संप्रदाय के सिद्धों में से बताए जाते हैं. खासकर बौध धर्म का जो बज्रयान संप्रदाय है, वही परिष्कृत होकर सिद्धों में परिवर्तित हो गया.
राहुल सांकृत्यायन ने गोरखनाथ को नवीं शताब्दी का संत माना है, लेकिन कुछ इतिहासकार यह भी बताते हैं कि जब भारत में छात्रधर्म का पतन हो गया तो गोरक्षनाथ ने ही अग्नि संस्कार करके अग्निवंषी क्षत्रीयों को राज-पाट सौंपा.
दरअसल, जिस दौर की राहुल सांकृत्यायन बात करते हैं उसके बारे में वे यह भी बताते हैं कि उस जमाने में राजाओं और उनके सामंतों में धन एकत्र करने की जबरदस्त लालसा थी. उस जमाने में सामंतों ने अपने यशोगान सुनाने वालों को बढ़ावा दिया. यह उस जमाने के बहुत संतों को नागवार गुजरा. गोरखनाथ ने भी इसका जमकर विरोध किया और नई परंपरा की नीव रखी. इस संदर्भ की पूरी चर्चा इलाहाबाद के हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रकाशित गोरखवाणी है.
वास्तव में गोरखनाथ को उत्तर भारत में एक ऐसी संत परंपरा को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है, जिसने अपने से पहले चली आ रही परंपराओं को नकारा और नई परंपराओं को जन्म दिया, जो बाद में एक व्यवस्थित संस्कृति का सूत्रपात किया. गोरखनाथ ने बहुत ज्यादा खाने और ज्यादा इकठ्ठा करने की निंदा की. उन्होंने अपने एक पद में कहा कि लग रहा है मोटे लोगों को गुरु से भेंट नहीं होती है, नहीं तो वह कम खाने को कहता. इस प्रकार वे बहुत चुटीले अंदाज में भोगवादी संस्कृति पर प्रहार करते थे. अपनी बेबाकी के लिए गोरखनाथ प्रसिद्ध थे. उन्होंने अपने गुरु को भी न छोड़ा और जब एक महिला के प्रम में गुरु मच्छंदरनाथ पड़ गए तो उन्हें फिर से अपनी परंपरा में लाने के लिए गोरखनाथ अभियान ही चला दिया. उन्होंने चापलूसी की संस्कृति की निंदा की. उन्होंने कहा कि कोई उनकी निंदा करता है, कोई उनसे वरदान प्राप्त करने की आशा करता है, लेकिन वह निंदा-प्रशंसा से उदासीन रहते हैं, वह किसी से संपर्क नहीं रखते हैं.
यकीनन आज भी गोरखपंथी समाज से जीवनयापन के लिए संपर्क रखते थे. वे एक खुले बर्तन जैसे नारियल की तुम्बी में भिक्षा मांगते हैं. सारंगी बजाकर गाना गाते हैं और समाज में अपनी गतिविधि दर्ज कराते रहते हैं.
नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्रनाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली बार व्यवस्था दी.गोरखनाथ ने ही इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया.इन दोनों गुरु-शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रूप में जाना जाता है.नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं, या फिर हिमालय में खो जाते हैं. हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है.ये योगी अपने गले में काले ऊन का एक जनेऊ रखते हैं, जिसे सिले कहा जाता है.गले में एक सींग की नादी रखते हैं.इन दोनों को सींगी-सेली के नाम से जाना जाता है.
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं.नाथ लोग अलख शब्द से शिव का ध्यान करते हैं.परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं.अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है.जो नागा है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है.इन्हें उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है.नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं.इन्हीं में आगे चलकर चैरासी सिद्ध और नवनाथ की परंपरा चली.
प्रारंभ में इनके दसनाथ थे.जिनका नाम आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकालनाथ, कालभैरवनाथ, बटुकनाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ है.इनके बारह शिष्य थे जिनका नाम नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुननाथ है।
आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ.इन सभी को नाथ परम्परा के साथ ही जोड़कर देखा जाता है.सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे.उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चैरासी मानी गई है।
इस संप्रदाय में नौ गुरुओं का विषेष महत्व है.संप्रदाय में मच्छेंद्रनाथ, गोरखनाथ, जालंधरनाथ, नागेशनाथ, भारतीनाथ, चर्पटीनाथ, कनीफनाथ, गेहनीनाथ, रेवननाथ का व्यापक प्रभाव है.ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चैरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ.सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है.बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगानाथ, पंढरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है.उल्लेखनीय है कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है.भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।
इस प्रकार देखें तो जिस पीठ के पीठाधिष्वर योगी आदित्यनाथ हैं उनके पूर्वजों ने देश की सांस्कृतिक संरचना और राष्ट्र निर्माण में व्यापक भूमिका निभाई है इसलिए योगी आदित्यनाथ से भी यही अपेक्षा की जा सकती है.अब मठ का शासन है तो सनातन संस्कृति का स्वाभाविक रूप से प्रसार होगा, ऐसी अपेक्षा तो रखी ही जानी चाहिए.