वर्ल्ड इकॉनॉमी में विकसित देशों की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है. मंदी के इस दौर में भारत का एक्सपोर्ट प्रभावित हुआ है. परंपरागत निर्यात के मामले में भारत की वैसी मजबूती नहीं है जैसा पहले हुआ करती थी. निर्यात अगर मजबूती से बढ़ रहा होता तो देश में सकल घरेलू उत्पाद दर 7 से 8 प्रतिशत बहुत आराम से बढ़ रहा होता पर जब खरीददार माल को किसी भी कीमत पर खरीद नहीं रहे हैं तो चारा ही क्या है?
नोटबंदी के सवाल और अर्थव्यवस्था
बीते साल केंद्र सरकार की ओर से की गई नोटबंदी पूरी दुनिया में चर्चा के केंद्र में रही है. इसके पक्ष और विपक्ष में बहुत सारी बहसें हुई हैं. नोटबंदी से उम्मीद यह थी कि करीब तीन लाख करोड़ रुपए का कालाधन रद्द हो जाएगा लेकिन यह कालाधन पर प्रहार करने में उतनी कामयाब नहीं हुई. हालांकि समझ लेनी चाहिए कि नकद मुद्रा में मौजूद कालाधन कुल काली संपदा का एक हिस्सा भर होता है, यानी जो कालाधन मकान, स्विस बैंकों के खातों, सोने आदि की शक्ल में पहले ही बदल दिया गया था, वह नोटबंदी से कतई अछूता रहा है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि नोटबंदी के सकारात्मक परिणाम नहीं हैं.
ऐसे दिखाई दिया नोटबंदी का असर
नकदी की कमी से कश्मीर जैसे आतंकवाद से ग्रस्त राज्य में पत्थरबाजी बहुत कम हो गई, क्योंकि पत्थरबाजों को देने के लिए नकद रकम अलगाववादियों के पास नहीं थी. इसी तरह से नकदीविहीन अर्थव्यवस्था के उद्देश्य से भी नोटबंदी को कामयाब मानना चाहिए. नोटबंदी के बाद ऐसे-ऐसे लोगों के मोबाइल फोनों में पेटीएम जैसे इलेक्ट्रानिक वॉलेट आ गए जिन्होंने कभी पेटीएम का नाम तक नहीं सुना था. उम्मीद है कि 2020 तक पेटीएम के 50 करोड़ ग्राहक जुटा लिए जाएंगे. क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड के प्रति जागरुकता बढ़ी है. कुल मिलाकर नकदी रहित लेन-देन के प्रति जागरुकता का माहौल बना. इस तरह से नकदी रहित लेन-देन के लिए नोटबंदी मुख्य कारण बनी.
इससे जहां लोगों की सुविधाएं बढ़ी, वहीं भ्रष्टाचार पर भी प्रभाव पड़ा. नोटबंदी के बाद प्रत्यक्ष कर के संग्रह में करीब 16 प्रतिशत का इजाफा हुआ. 2012-13 में कुल 4 करोड़ 72 लाख मतदाता थे जो 2016-17 में बढ़कर 6 करोड़ 26 लाख हो गए. 2016-17 में करीब नब्बे लाख रुपए नए करदाता जुड़े और हर साल जितने करदाता जुड़ते हैं, उसके मुकाबले यह 80 प्रतिशत ज्यादा बढ़ोत्तरी है. नोटबंदी के बाद की गई कार्यवाहियों में 5400 करोड़ रुपये की अघोषित आय पकड़ी गई.
देखने में यह आ रहा है कि तमाम बैंक हाउसिंग ऋण समेत कई तरह के ऋणों की ब्याज दर में कमी कर रहे हैं. बैंकों का कारोबार नोट रखने से नहीं, नोटों को आगे ऋण पर देकर उनसे ब्याज कमाने से चलता है. चूंकि बैंकों के पास नोटबंदी के चलते बहुत नोट आए, इसलिए उन्होंने ब्याज दर सस्ती कर दी, इसका श्रेय नोटबंदी को ही दिया जाना चाहिए. जहां तक रोजगार का सवाल है अब उसका विश्लेषण पुराने मानकों से नहीं हो सकता.
भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत आंकड़ों में
अर्थव्यवस्था में विकास के बावजूद कई क्षेत्रों में नौकरियों का अकाल है. रपटों के मुताबिक यह पिछले करीब एक साल में लगभग दस हजार लोगों को नौकरी से निकाल चुका है. मशीनें काम कर रही हैं. खेती की हालत खराब है. किसानों को आत्महत्या के चक्र से मुक्ति नहीं मिल रही.
हालांकि रोजगार का रास्ता नौकरियों से नहीं, स्वरोजगार से निकलता है जिसके बारे में मोदी सरकार का दावा है कि तीन करोड़ बयालीस लाख रुपए के मुद्रा कर्जों से करीब 5.5 करोड़ रोजगार पैदा किए गए हैं. दफ्तर वाली नौकरियों का पैदा हो पाना अब वैसे संभव नहीं है जैसे पुराने दौर में था.
सरकार दे रही है ये सहयोग
रोजगार सिर्फ नौकरियों से नहीं, उसके लिए स्व रोजगार की व्यवस्था और हुनरमंद प्रशिक्षण जरुरी है और इसके लिए मोदी सरकार पचास हजार रुपये से लेकर दस लाख रुपये तक के ऋण उपलब्ध करा रही है. सरकार मोटे तौर पर ऐसे इंतजाम करने जा रही है कि हरेक के लिए कुछ न्यूनतम व्यवस्था हो सके यानी सरकार हरेक के खाते में एक न्यूनतम रकम हस्तांतरित करेगी.
मंदी के सवाल और यथार्थ
जहां तक मंदी का प्रश्न है, उसके लिए आर. जगन्नाथ का कहना है कि मंदी की एक बहुत बड़ी वजह यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कानूनी और गैर कानूनी धन के मध्य एक दीवार खड़ी कर दी है. पहले धनी लोग अपने नम्बर दो के रुपयों को मॉरीशस या साइप्रस ले जाते थे, वहां पर उन्हें टैक्स नहीं देना पड़ता था. फिर वे उस पैसे को शैल या कागजी कम्पनियों के जरिए भारत ले आते थे. दिखाया यह जाता था कि शैल कम्पनी का शेयर बेचने से भारी लाभ हुआ है. इस तरह से पैसा नंबर एक का हो जाता था.
दूसरे भ्रष्ट लोग किसी वस्तु का दाम विदेशों में कई गुना बढ़ाकर निर्यात करते थे. मजे की बात यह है कि भारत से निर्यात करने वाला और विदेश में उस वस्तु को खरीदने वाला व्यक्ति एक ही होता था. यहां से शैल कम्पनी से निर्यात किया, वहां पनामा या मारीशस से पंजीकृत शैल कम्पनी ने उसे आयात किया. इस तरीके से पैसा नम्बर एक का हो जाता था. अब ऐसे लोगों का कालाधन चाहे भारत में हो या विदेश में फंसा हुआ है और किसी की भी सहायता करने में सक्षम नहीं है. प्रधानमंत्री स्वतः बता चुके हैं कि एक लाख कागजी कम्पनियों का पंजीकरण रद्द किया जा चुका है, जबकि दो लाख शैल कम्पनियों के बैंक एकाउंट फ्रीज हो चुके हैं. चूंकि बड़े उद्योगपतियों और व्यवसायियों के लिए विदेशों में जमा कालाधन भारत में लाने का रास्ता अवरुद्ध हो गया है. एक के बाद एक कंस्ट्रक्शन कम्पनियां बंद हो रही हैं.
मनमोहन सरकार और मोदी का गुड गवर्नेंस
इस संबंध में मनमोहन सरकार के दस वर्षों का कार्यकाल और मोदी सरकार के सवा तीन वर्षों के कार्यकाल का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रासंगिक होगा. 2004 में मनमोहन सरकार के सत्ता में आने पर उसे वाजपेयी सरकार से 8.2 प्रतिशत की दर से वृद्धि करने वाली राष्ट्रीय विकास दर मिली थी, जो वर्ष 2014 में मोदी सरकार के आने पर 6.9 प्रतिशत हो गई थी. इस परिपेक्ष्य में यह ध्यान रखना जरूरी होगा कि मनमोहन सरकार को उदीयमान अर्थव्यवस्था मिली थी जबकि मोदी सरकार को सिकुड़ती अर्थव्यवस्था जो पॉलिसी पैरालिसिस के साथ संगठित लूट का शिकार थी, मिली थी.
यदि औसत प्रति व्यक्ति आय को देखा जाए तो मनमोहन सरकार के विदाई के वक्त यह 80.388 रुपये थी जो वर्तमान में 103.219 रुपये है. 2013-14 में 96 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का दायरा था जो 2016-17 में 185 लाख करोड़ का हो गया है. विदेशी मुद्रा भण्डार 2013-14 में 315 अरब डॉलर से 2016-17 में 400 अरब डॉलर को पार कर चुका है. पूर्व में वित्तीय घाटा जहां 4.50 प्रतिशत था, वहीं अब 3.50 प्रतिशत है. 2013-14 में औद्योगिक विकास दर जहां 4.2 प्रतिशत थी, वहीं अब 4.5 प्रतिशत है. एफ.डी.आई. 36 बिलियन डॉलर से 60 बिलियन डॉलर हो गई है.
आंकड़ों का हिसाब और सरकारें
सबसे बड़ी बात यह कि महंगाई दर जो पूरे आर्थिक विकास को अस्त-व्यस्त कर देती है, वह यू.पी.ए. सरकार के दौर में 9.49 प्रतिशत थी, जो मोदी सरकार के दौर में 4 प्रतिशत के अंदर ही है. थोक मुद्रा की स्थिति जहां यू.पी.ए. के दौर में 5.98 प्रतिशत थी, वहीं अब 1.20 प्रतिशत मात्रा है. तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि समाज कल्याण के कार्यों में भी मोदी सरकार आगे है.
2013-14 में शिक्षा पर खर्च 65.867 करोड़ रुपये था, जो 2016-17 में 78.868 रुपये है. स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च जहां 37.330 करोड़ रुपये था वहीं अब 48.878 करोड़ रुपये है. यहां तक कि मनरेगा में जहां 2013-14 में 1.518-160 करोड़ रुपये खर्च किए गए वही 2016-17 में 1.522-346 करोड़ खर्च किए गए. भारत का चालू घाटा नियंत्रण में है, यह फिलहाल सेफ जोन में है और 2 फीसदी से नीचे है.
नोटबंदी और कालाधन
जो लोग यह कहते हैं कि नोटबंदी के माध्यम से सारा कालाधन सफेद कर लिया गया, वह या तो असलियत जानते नहीं, या जानबूझकर दुष्प्रचार कर रहे हैं, क्योंकि ऐसे सभी लोग जांच एजेंसियों के राडार में है और उन्हें देर-सबेर परिणाम भुगतना ही पड़ेगा. दुनिया का इतिहास यही बताता है कि कोई भी दीर्घकालीन हितों को ध्यान में रखकर क्रान्तिकारी कदम उठाने पर कुछ हद तक संक्रमण के दौर से गुजरना पड़ता है. फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर कहीं से भी निराश और हताशा करने वाली नहीं है.
सरकार आधारभूत ढांचे के विनिर्माण से लेकर गरीबों के कल्याण के लिए कहीं भी पैसों की कमी नहीं होने दे रही है. अभी हाल में बैंकों को 2.11 लाख करोड़ की मदद एवं मेगा हाईवे प्लान के लिए 7 लाख करोड़ दिया जाना हमारी अर्थव्यवस्था की मजबूती को बताता है. कुछ समय के लिए तकलीफ जरूर है, जैसे कोई बड़ी सर्जरी के बाद स्वस्थ होने पर भी तेजी से चलने में कुछ समय लगता है. बड़ा सच यह कि जैसा कहा जाता है कि रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ था. वही बात सर्वत्र लागू होती है.
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