हिमाचल प्रदेश में आगामी 09 नवंबर को विधानसभा चुनाव होना है. प्रदेश में चुनाव प्रचार पूरे जोरों पर है. यह स्वाभाविक भी है. चुनाव प्रचार का अंतिम दौर है, जहां एक ओर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह रैलियों पर रैली किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं. जबकि प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह भी 83 साल की आयु में नौजवानों को मात देते हुए पूरे जोश के साथ भाजपा पर इकीस साबित हो रहे हैं.
प्रदेश में दोनों राष्ट्रीय पार्टियां आपस में उलझी पड़ी है. वैसे भी हिमाचल प्रदेश में अन्य पाटियों का कोई खास वजूद नहीं है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के अलावा कहीं कुछ दिख रहा है, तो छिट-फुट लाल झंडे वालों का ही वजूद दृष्टिगत होता है. अब मायावती की पार्टी को ही ले लीजिए, बहुजन समाज पार्टी राज्य के कुल 68 विधानसभा क्षेत्र में से 42 पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं, लेकिन उनका हाल यह है कि कांगड़ा में जब मायावती की रैली रखी गई तो लोग नहीं आए और सारी कुर्सियां खाली रह गईं. मायावती ने सभा को संबोधित करने से मना कर दिया और मायावती की रैली निरस्त कर दी गई, लेकिन हिमाचल प्रदेश में साम्यवादी संयुक्त गठबंधन की ऐसी स्थिति नहीं है. साम्यवादी गठबंधन प्रदेश के कुल 17 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है और चार निर्दलीय प्रत्याशियों को अपना समर्थन दिया है. इसमें से 13 सीटों पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं, जबकि 4 सीटों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव लड़ रही है, साम्यवादी गठबंधन अपने विचार वाले चार स्वतंत्र उम्मीदवारों को अपना समर्थन दिया है.
शिमला में हो रही चर्चाओं पर यदि ध्यान दिया जाए तो प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर है.इन दोनों प्रभावशाली राजनीतिक दलों के बीच यदि किसी दल का प्रभाव इस बार देखा जा रहा है, तो साम्यवादी गठबंधन ही है. वैसे इस बार आजाद उम्मीदवारों का भी पूरा जोर है. दोनों पार्टियों के बागी नेता कई विधानसभा क्षेत्र में अपनी ही पार्टी के खिलाफ मैदान में हैं और उनकी स्थिति अच्छी भी है. यदि उनमें से कुछ की स्थिति अच्छी नहीं भी है तो वे अपनी पार्टी प्रत्याशियों के समीकरण बिगाड़ रहे हैं और यह बड़ा रोचक है.
खैर, इन उम्मीदवारों को नजरअंदाज कर दिया जाए तो तीसरी धारा साम्यवादी गठबंधन की ही कही जा सकती है, क्योंकि इस बार हिमाचल प्रदेशविधानसभा में दम-खम के साथ साम्यवादी चुनाव मैदान में है. वैसे साम्यवादी नेताओं का दावा है कि हिमाचल प्रदेश में उनके पास पांच प्रतिशत वोट है, लेकिन प्रेक्षकों का मानना है कि प्रत्येक विधानसभा में साम्यवादी कैडरों की संख्या पांच सौ से लेकर हजार तक तो है. धर्मपुर, शिमला, ठियोग, रामपुर, जोगिन्दर नगर, हमीरपुर, सुजानपुर, कुसम्मपटी, सरकाघाट आदि विधानसभा क्षेत्रों में साम्यवादी कैडरों की संख्या हजार से ऊपर बताई जाती है, जिसमें से शिमला और ठियोग में साम्यवादी हमेशा चुनौती देते आए हैं.
इस बार जो परिस्थितियां बनी है उसमें से चार विधानसभा क्षेत्रों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थिति अच्छी है. चार विधानसभा क्षेत्रों में से ठियोग और शिमला में पार्टी अपने प्रतिपक्षियों को टक्कर देने की स्थिति में है.यदि सबकुछ ठीक रहा तो ठियोग का विधानसभा सीट मार्क्सवादी जीत भी सकते हैं. यहां के बारे में बताया जा रहा है कि यहां कांग्रेस मुकाबले से बाहर हो गई है और भारतीय जनता पार्टी के राकेश वर्मा और साम्यवादी राकेश सिंघा के बीच सीधी लड़ाई की संभावना बन गई है. चूकि यहां वामपंथी कैडर वोटों की संख्या 8 हजार बताई जा रही है. यहां से विद्या स्टोक्स चुनाव लड़ रही थी, लेकिन उनका इस बार उम्मीदवारी निरस्त हो गया. हालांकि यहां से कांग्रेस का भी उम्मीदवार है, लेकिन ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि विद्या स्टोक्स के समर्थक साम्यवादियों को वोट कर सकते हैं क्योंकि स्टोक्स और सिंघा के बीच बेहद मधुर संबंध बताया जाता है, वहीं ठियोग में कांग्रेस के उम्मीदवार को पैराशूूूूटी माना जा रहा है. यहीं से ही वामपंथ के मजबूत होने की कहानी शुरू होती है.यहां से चुनाव लड़ रहे वामपंथी राकेश सिंघा 1993 में शिमला शहर से विधायक भी रह चुके हैं.
इस तरह कुल मिलाकर देखें तो इस बार पहाड़ पर लाल झंडे की थोड़ी उम्मीद बंध रही है. हालांकि यह नाकाफी है लेकिन जिस प्रकार पहाड़ पर साम्यवादी दलों का काम बढ़ रहा है, वैसे में कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए खतरे की घंटी है. यकीनन यदि साम्यवाद पहाड़ चढ़ गया तो फिर उसको उतार पाना बेहद कठिन होगा. फिर विगत् कई वर्षों से पहाड़ के लोग दो ही पार्टियों को देख-देख कर थोड़े बोर भी हो गए हैं. यदि इन दोनों मध्यममार्गी पार्टियों का विकल्प देने में साम्यवादी सफल रहे तो फिर आने वाले समय में साम्यवाद की फसलें पहाड़ पर उगने से कोई रोक नहीं सकता है.
हिमाचल प्रदेश में किसी जमाने में लाल झंडों का जोर था, लेकिन विगत् कई वर्षों से पार्टी चुनाव तो लड़ रही है लेकिन किसी सीट पर जीत दर्ज नहीं करा पायी.साम्यवाद का गढ़ हिमाचल विश्वविद्यालय को माना जाता है. हालांकि सन् 2014 से विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव बंद है, लेकिन आज भी विश्वविद्यालय में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई एसएफआई की तूती बोलती है. साम्यवादी राजनीति के जानकारों का कहना है कि इस बार साम्यवादी दल न केवल संयुक्त रूप से चुनाव लड़ रहे हैं, अपितु चुनाव लड़ने के रंग-ढंग से साफ लग रहा है कि वे इस बार गंभीरता के साथ चुनाव लड़ रहे हैं.
बहरहाल, चुनाव परिणाम चाहे जो हो, लेकिन पहाड़ पर लाल झंडे की उम्मीद बढ़ी है. इसका कारण भी है. विगत् कई वर्षों से भाजपा और कांग्रेस ने जो राजनीति और प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया है उससे यहां की जनता असहज महसूस कर रही है. यहां जनता को अब तीसरे विकल्प की तलाश है. साम्यवादी विस्तार उसी तलाश का परिणाम है. यदि साम्यवाद को पहाड़ चढ़ने से रोकना है तो अब भाजपा और कांग्रेस दोनों को अपनी कार्यशैली में व्यापक परिवर्तन करने होंगे. वैसे 2007 में मायावती का हाथी पहाड़ चढ़कर भाजपा के साथ हो लिया था और 2003 में सुदूर बिहार की लोक जनशक्ति पार्टी का भी एक विधायक यहां रह चुका है.
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