एक पुरानी घटना है. इंदौर-भोपाल हाईवे पर एक ट्रक और कार का एक्सीडेंट हो गया. घटना स्थल पर लोगों की भीड़ जमा हो गई, लेकिन आश्चर्य की बात है कि लोग उन घायलों की मदद करने की बजाए वीडियो बनाने में मशगूल थे. गनीमत रही कि कोई बड़ी हानि नहीं हुई, लेकिन इस घटना से एक बात सामने आई कि आखिर इस पीढ़ी को क्या हो गया हैं? जहां इंसानियत के नाते पहला फर्ज घायलों की मदद होना चाहिए, वहां नौजवान वीडियो बनाने में मशगूल हो रहे हैं.
इतिहास की नजर में नैतिक मूल्य –
आपको क्या लगता है, नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना 20वीं शताब्दी से ही शुरू हुआ? आपके जमाने से या आपके किसी बुजुर्ग रिश्तेदार या दोस्त के जमाने से? बल्कि यह कृत्य होना तो एक सदी पहले ही हो चुका था. सन् 1914 में जब पहला विश्वयुद्ध हुआ, तब से नैतिक मूल्यों का अचानक गिरना शुरू हो गया और ऐसा पहले किसी भी जमाने में नहीं देखा गया था.
इतिहास के प्रोफेसर राबर्ट वोल ने अपनी किताब 1914 की पीढ़ी (अंग्रेजी) में लिखा “जिन्होंने भी इस युद्ध को देखा था, वे यकीन नहीं कर सकते कि अगस्त 1914 से संसार का रुख ही बदल गया है.
इतिहासकार, नारमन कैनटर कहते हैं- हर जगह चाल चलन के बारे में लोगों के स्तर जो पहले से ही गिरने शुरू हो गए थे, अब पूरी तरह खत्म हो चुके हैं. बड़े – बड़े नेता और सेना के जनरल अपने अधीन लाखों लोगों के साथ इस तरह पेश आए मानो वे हलाल किए जाने वाले जानवर हों.
जब उन्होंने ही ऐसा किया तो भला धर्म का या सही-गलत का कौन-सा उसूल आम लोगों को हर दिन एक-दूसरे के साथ जानवरों जैसा सलूक करने से रोक सकता है? पहले विश्वयुद्ध सन 1914-18 में जिस कदर खून की नदियां बहाई गईं, उसकी वजह से इंसान की जान की कीमत एकदम घट गई.
अंग्रेज इतिहासकार, एच. जी. वैल्स ने अपनी बुक, इतिहास का सारांश (अंग्रेजी) में लिखा कि जब से विकासवाद के सिद्धांत को अपनाया गया, तब से सही मायनों में नैतिक मूल्यों का गिरना शुरू हुआ. क्यों? क्योंकि कई लोगों का यह मानना था कि इंसान बस ऊंची जाति का जानवर है, और कुछ नहीं.
वैल्स ने, जो खुद एक विकासवादी थे, सन् 1920 में लिखा- लोगों ने तय किया कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, ठीक भारत के शिकारी कुत्तों की तरह, इसलिए उन्हें लगता है कि बड़े-बड़े और ताकतवर लोगों का कमजोर और कम दर्जे के लोगों पर धौंस जमाना और उन्हें दबाकर रखना सही है.
भारत में क्यों बदल रही नैतिकता ?
भारत में नैतिक मूल्यों की अत्यधिक शरण होने का जिम्मेदार बच्चों के बस्ते से नैतिक शिक्षा की किताब के लुप्त होने के बाद से भी माना जा सकता हैं. संभावनाओं के असीम संसार में मातृभाषा में होने वाली शिक्षा पद्धति का लोप और विकास के मार्ग पर चलने वाली नवीन पीढ़ी की स्वयं का संस्कारों भी कहीं ना कहीं इसके लिए जिम्मेदार हैं.
नैतिकता के मामले में सही मार्गदर्शन पाने के लिए, हम दुनिया के मंदिर-मस्जिद और चर्चों के पास भी नहीं जा सकते क्योंकि वे, वे भी अब पहली सदी की पवित्रता की तरह नहीं हैं जो धर्मी सिद्धांतों पर चलते थे. इसके बजाय उन्होंने खुद को दुनिया का हिस्सा बना लिया और वे उसकी बुराइयों में शामिल हो गए.
सचमुच इस दुनिया में जिस हद तक नैतिक मूल्य गिर गए हैं, उससे साफ पता चलता है कि जल्द-से-जल्द कुछ बदलाव किए जाने की सख्त जरूरत है लेकिन कैसा बदलाव? यह बदलाव कौन ला सकता है और कैसे?
कैसे बदलेगा समाज ?
सच भी यही है, मंदिर, मस्जिद और शिवालय अब किसी क्रांति का सूत्रापात नहीं कर सकते हैं क्योंकि वे खुद ही खोखलेपन से जूझ रहे हैं. नैतिकता के बचाव के लिए कुछ उपाय किए जा सकते हैं. संभावना हैं कि उससे कुछ परिवर्तन दिखाई दे पर उससे भी किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद कम हैं.
जैसे कि बाजार आधारित उन्नति को ही सर्वस्व मानने वाली पीढ़ी में संस्कार आधारित जीवनशैली को संवर्धन करना. बच्चों की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही हो ताकि स्कूल से ही शिक्षा स्तर सुधरे और संस्कार जीवित हो पाए. फिर से नैतिक शिक्षा की किताब सिलेबस में जोड़ी जाए ताकि इतिहासप्रद कथाएं शिक्षित करने के साथ-साथ संस्कारवान भी बनाएं.
दादा-दादी से मिलने वाली लोकशिक्षा से बच्चों को जोड़ा जाए ताकि परिवार की समझ उनमे आ सके. बच्चों को किताबें पढ़ने के प्रति आकर्षित किया जाएं. ये सब बातें तो फिर आगामी फसल यानी नई पीढ़ी के लिए हुई लेकिन युवा पीढ़ी के लिए भी कुछ करने की आवश्यकता है. जैसे कि फिल्मों के माध्यम से इतिहास की दुहाई देती हुई घटना से मनोस्थिति में परिवर्तन संभव है. इस हेतु फिल्मों से नैतिक मूल्यों के बारे में समझाया जाए क्योंकि उसका प्रभावी व्यापक होता है.