पूर्वोत्तर के राज्यों में से त्रिपुरा का विशेष महत्व है. यहां लगभग चार दशकों से त्रिपुरा में वाममोर्चा की सरकार है. विगत दिनों चुनाव आयोग ने त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव की घोषणा की. त्रिपुरा विधानसभा का चुनाव 18 फरवरी को कराए जाएंगे. मार्च में त्रिपुरा विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो रहा है, इसलिए फरवरी में चुनाव होना जरूरी था. चुनावी घोषणा के साथ ही त्रिपुरा की राजनीति में गरमाहट देखने को मिल रही है.
त्रिपुरा में पिछड़ी कांग्रेस और बढ़ रही है भाजपा
अभी त्रिपुरा में माणिक सरकार के नेतृत्व वाली वाममोर्चे की सरकार है. पहले त्रिपुरा में वाम मोर्चा के प्रतिपक्ष में कांग्रेस हुआ करती थी. पीछे 2013 के विधानसभा चुनाव में भी वाममोर्चा के खिलाफ मुख्य टक्कर कांग्रेस के साथ ही थी. कांग्रेस ने इस चुनाव में 10 सीटें भी जीती, लेकिन हाल में कांग्रेस के पास जो जमीन थी वह खिसकती हुई दिख रही है. पीछे जो विधायक कांग्रेस के जीते थे उसमें से 06 विधायक पहले तृणमूल कांग्रेस में और बाद में भाजपा के साथ चले गए.
यही नहीं त्रिपुरा में बड़ी तेजी से कांग्रेस की लोकप्रियता का ग्राफ कम हो रहा है. वहीं दूसरी ओर भाजपा का ग्राफ तेजी से बढ़ रही है. भाजपा का वोटबैंक 02 प्रतिशत से बढ़कर 06 प्रतिशत हो गया है. वहीं कांग्रेस का वोट प्रतिशत 37 से घटकर 15 पर आ गया है. यह आंकड़ा साबित करता है कि प्रदेश में कांग्रेस की जमीन खिसक रही है और भाजपा का ग्राफ बढ़ रहा है.
लेफ्ट के दुर्ग को भेद पाएगी बीजेपी
सवाल यह है कि त्रिपुरा में लेफ्ट के दुर्ग को बीजेपी भेद पाएगी? खास बात यह है बीजेपी त्रिपुरा में बीजेपी एक नई रणनीति के साथ उतरी है. पार्टी ने इस राजनीतिक युद्ध में एक मराठी किताब को सियासी हथियार बनाया और वह इसके जरिए सीएम मणिक सरकार पर सीधे हमला कर रही है. दरअसल, मूल रूप से मराठी में लिखी गई इस किताब का हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है.
भाजपा महासचिव राम माधव कहते हैं कि कहा है कि इस किताब के जरिए त्रिपुरा की सच्चाई देश के सामने आएगी. वे कहते हैं कि माणिक सरकार की जो छवि बनाई गई है, वो सिर्फ छलावा है. हालांकि इस किताब पर विवाद खड़े करने वाले यह भी कह रहे हैं कि इस किताब की मूल प्रति मराठी भाषा में लिखी गई है जो खुद इस किताब की विश्वसनीयता पर सवाल है.
क्या है किताब की रणनीति
किताब त्रिपुरा की राज्यव्यवस्था पर लिखी गई है. इसमें कानून व्यवस्था से लेकर चुनाव में बूथ कैप्चरिंग का आरोप लगाए गए हैं. ऐसे में भाजपा इस किताब की बातों को राज्य के चुनाव में जिक्र करेगी. हालांकि भाजपा के द्वारा जिन स्थानीय दलों से गठबंधन किया गया है उस पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं. सत्तारूढ़ साम्यवादियों ने भाजपा को पृथक्तावादियों के साथ समझौता करने का आरोप लगाया है.
बता दें कि 1978 के बाद से वाममोर्चा सिर्फ एक बार 1988-93 के दौरान राज्य के सत्ता से दूर रहा था. बाकी सभी विधानसभा चुनाव में लेफ्ट का कब्जा रहा है. 1998 से लगातार त्रिपुरा में 03 बार से सीपीएम के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के सामने इस बार बीजेपी एक बड़ी चुनौती बनी है.
क्या है कांग्रेस की स्थिति
राज्य में कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है. वहीं भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भाजपा ने पूर्वोत्तर के क्षेत्रों पर फोकस किया है. इसके अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लगातार पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में सक्रिय है.
बता दें कि त्रिपुरा के 2013 विधानसभा चुनाव में राज्य की कुल 60 सीटों में से वाममोर्चा ने 50 सीटें जीती थी, जिनमें से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 49 और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 01 सीट मिली थी. इस चुनाव में कांग्रेस को 10 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा था, लेकिन तीन साल के बाद 2016 में कांग्रेस के 06 विधाय ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस में चले गए. ये विधायक वहां भी नहीं टिके और वे सभी विधायक तृणमूल छोड़कर अगस्त 2017 में भाजपा में जले गए.
मजबूत रहे हैं माणिक सरकार
त्रिपुरा में 03 बार के सीपीएम मुख्यमंत्री माणिक सरकार को चुनौती मिलना मुश्किल ही लगता है. भाजपा ने 2013 के चुनावों के 02 फीसदी वोट शेयर को बढ़ाकर 2014 में 06 फीसदी कर लिया था. इसी दौरान कांग्रेस 37 से घटकर 15 फीसदी पर पहुंच गई. त्रिपुरा विधानसभा की 60 सीटों में से 20 सीटें अनुसूचित जनजाति और 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं.
1978 के बाद वाम मोर्चा ने सबसे बेहतर जीत हासिल की थी. राज्य की 60 सीटों में से 56 पर जीत हासिल की थी. राज्य में 1978 जैसा करिश्माई परिणाम लेफ्ट दोबारा नहीं दोहरा सकी है. माणिक सरकार ने ईमानदारी के बल पर 2013 के विधानसभा चुनाव में उतरे और उन्होंने 2008 के तुलना में एक सीट ज्यादा दर्ज करते हुए 50 सीटों का आंकड़ा छुआ था.
ऐसी है राज्य में भाजपा की हालत
इधर बीजेपी ने कई स्थानीय दलों के साथ समझौता किया है. इस समझौते को लेकर सीपीएम ने कहा है कि भाजपा खुद राष्ट्रवाद के खिलाफ जाकर जो पृथक्तावादी शक्तियों के साथ समझौता कर रही है. पूर्वोत्तर के राज्यों में अलगाववादियों की ताकत किसी से छुपी नहीं है. ऐसी परिस्थिति में यदि सीपीएम के आरोप में दम है तो इसके बड़े गंभीर परिणाम हो सकते हैं. इसकी गंभीरता को समझना चाहिए.
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