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कभी कुपोषण तो कभी दुर्घटनाएं, मध्य प्रदेश में भी सुरक्षित नहीं हैं बच्चे

Malnourished Children of Madhya Pradesh. (Symbolic Image) Image Source: Pixabay.comMalnourished Children of Madhya Pradesh. (Symbolic Image) Image Source: Pixabay.com
Malnourished Children of Madhya Pradesh. (Symbolic Image) Image Source: Pixabay.com
Malnourished Children of Madhya Pradesh. (Symbolic Image) Image Source: Pixabay.com

मध्य प्रदेश भी पिछले कई दशकों से बच्चों के लिए कब्रगाह बना हुआ है. एक तरफ तो बीच-बीच में गोरखपुर की तरह होने वाली घटनाएं हैंं, तो दूसरी तरह भूख और कुपोषण से होने वाली मौतों का अंतहीन सिलसिला. तमाम ढोंगों और ढकोसलो के बावजूद इसकी प्रेतछाया दूर होने का नाम ही नहीं ले रही है. दुर्भाग्य से गोरखपुर की घटना कोई इकलौती घटना नहीं है, इससे पहले भी देश के अनेक हिस्सों में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं. पूर्व में हुई घटनाओं से हम सीख हासिल सकते थे, लेकिन हमने कभी भी ऐसा नहीं किया है. हमने तो  जवाबदेही को एक दूसरे पर थोपने और हर नये मामले को किसी हिसाब से रफा दफा करने का काम किया है.

इसी साल 21 जून को इंदौर के शासकीय महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय (एमवाय हॉस्पिटल) में भी कुछ इसी तरह की घटना हुई थी. जहां चौबीस घंटे में 17 लोगों की मौत हो गई थी. इसमें चार नवजात बच्चे भी शामिल थे. यहां भी मामला ऑक्सीजन सप्लाई ठप होने का ही था. हैरानी की बात यह है कि हॉस्पिटल में जिस प्लान्ट से 350 मरीजों तक ऑक्सीजन सप्लाई की की कमान 24 घंटे सिर्फ एक व्यक्ति के हाथ में रहती है. यानी वह कहीं चला जाए या रात में सो जाए और इस बीच ऑक्सीजन खत्म हो जाए तो सप्लाई रुक जाने का खतरा बना रहता है. जैसा की हमेशा से होता आया है यहां भी अस्पताल प्रशासन और मध्य प्रदेश सरकार ने इन मौतों को सामान्य बताया था और पूरी तरह से घटना को दबाने और पूरे मामले की लीपापोती में जुट गये थे.

अखबारों में प्रकाशित ख़बरों के अनुसार उस रात एमवाय अस्पताल की मेडिकल गहन चिकित्सा इकाई, ट्रॉमा सेंटर और शिशु गहन चिकित्सा इकाई ऑक्सीजन की आपूर्त कुछ देर के लिए बंद हो गई थी, जिसकी वजह से यह मौतें हुईं. प्रशासन इस इन मौतों को सामान्य बताता रहा और बहुत ही संवेदनहीनता के साथ कुतर्क देता रहा कि एमवाय अस्पताल में तो  हर रोज औसतन 10-15 मौतें होती ही हैं.

महाराजा यशवंतराव चिकित्सालय (एमवाईएच) का ही एक दूसरा मामला मई 2016 है, जब ऑपरेशन थियेटर में ऑक्सीजन की जगह एनिस्थीसिया (निश्चेतना) के लिए इस्तेमाल की जाने वाली नाइट्रस आक्साइड गैस दे दिया गया था, जिसकी वजह से दो बच्चों की मौत हो गई थी. बाद में अस्पताल प्रशासन की गई जांच में पता चला कि ऑपरेशन थिएटर में जिस पाइप से ऑक्सीजन आनी चाहिए, उससे नाइट्रस ऑक्साइड की आपूर्ति की जा रही थी.

दरअसल, ऑपरेशन थिएटर में गैसों की आपूर्ति और इनके पाइप जोड़ने का काम करने वाली एक निजी कम्पनी के हवाले था, जिसके खिलाफ भारतीय दंड विधान की धारा 304-ए (लापरवाही से जान लेना) के तहत मामला दर्ज करके पूरे मामले को दबाने की कोशिश की गयी. हालांकि बाद में ‘स्वास्थ्य अधिकार मंच’ ने इस मामले में गठित जांच समिति पर सवाल उठाते हुए आशंका जताई थी कि चूंकि इस मामले की जांच करने के लिए गठित जांच समिति के सभी पांच डॉक्टर एमवाईएच से जुड़े हैं, इसलिए वे अस्पताल के दोषी स्टाफ को बचाने के लिए जांच के नाम पर लीपापोती कर सकते हैं.

खैर, जांच के लिए गठित समिति ने पाया था कि कि पाइप लाइन में लीकेज भी है, जिसका  मेंटेनेंस किया जाना चाहिए  लेकिन लापरवाही की हद देखिये एक साल से ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद यह काम भी पूरा नहीं किया जा सका है जबकि इसी की वजह से पिछले साल हादसा हुआ था .

सूबे की राजधानी भोपाल गैस काण्ड जैसी त्रासदी के लिए तो कुख्यात है ही, यह एक ऐसी त्रासदी है जिसके  33 साल होने को है लेकिन इसका असर आज भी  देखा जा सकता है. यह दुनिया की उन त्रासदियों में शामिल है जिसका असर कई पीढ़ियों पर पड़ा है. आज भी यहां जन्म लेने वाले बच्चों में इसकी वजह से विकृति देखी जा सकती है.

भोपाल स्थिति यूनियन कार्बाइड कंपनी के कारखाने से मिथाइल आइसोसाइनेट के रिसाव से दुनिया का सबसे भयावह औद्योगिक हादसों में से एक है ,इस हादसे में 15 हजार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी और कई हजार लोग बीमार हो गए. गैस के विनाशकारी प्रभाव आज की पीढ़ियों तक में देखे जा सकते  हैं. गैस प्रभावित इलाकों में अभी भी  बच्‍चे कई असामान्‍यताओं के साथ पैदा हो रहे हैं.

पिछले साल गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य के लिए काम रही संस्था संभावना ट्रस्ट द्वारा एक अध्ययन किया गया था इस अध्ययन में करीब एक लाख से गैस पीड़ित शामिल थे, अध्ययन के दौरान चिकित्सक द्वारा प्रमाणित टीबी, कैंसर, लकवा, महिलाओं का प्रजनन स्वास्थ्य तथा शिशुओं और बच्चों की शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास की जानकारी इकट्ठा की गयी. अध्यनन में पाया गया कि गैस पीड़ितों की चौथी पीढ़ी भी इसके दुष्परिणामों को भोग भोगने के लिये अभिशप्त है, 1700 से अधिक बच्चों को जन्मजात विकृति से ग्रस्त पाया गया.

भोपाल गैस त्रासदी का महिलाओं और बच्चों पर पड़े प्रभावों को लेकर स्वाति तिवारी जी की ‘सवाल आज भी जिन्दा है’नाम से एक किताब भी आ चुकी है. इस किताब में बताया गया है कि कैसे इस हादसे की वजह कुल 2698 गर्भावस्थाओं में से 436 महिलाओं के गर्भपात के मामले सामने आये थे, 52 बच्चे मरे हुए पैदा हुए थे और अधिकांश बच्चे जो पैदा हुए थे वे बाद में जन्मजात विकृति के साथ जीने को मजबूर हुए थे. 

मध्य प्रदेश के लिये कुपोषण कई दशकों से एक ऐसा कलंक बना हुआ है जो पानी कि तरह पैसा बहा देने के बाद भी नहीं धुला है. कुपोषण के सामने विकास’के तथाकथित मध्य प्रदेश मॉडल के दावे खोखले साबित हो रहे हैं जमीनी हालात चुगली करते हैं कि  कि मध्य प्रदेश ‘‘बीमारु प्रदेश’’ के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है. तमाम योजनाओं और बजट के बावजूद मध्य प्रदेश शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर बना हुआ है. कुपोषण का सबसे ज्यादा प्रभाव आदिवासी बाहुल्य जिलों में देखने को मिलता है इसकी वजह यह है कि आदिवासी समाज पर ही आधुनिक विकास कि मार

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस -2015-16) के अनुसार मध्य प्रदेश में  42.8 प्रतिशत प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के मामले में मध्य प्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है, जहां 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है. यह हाल तब है जब कि इस अभिशाप से मुक्ति के लिए पिछले 12 सालों से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है , पिछले पांच सालों में ही कुपोषण मिटाने के लिये 2089 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी हालात सुधर क्यों नहीं रहे हैं?   

मामला चाहए गोरखपुर का हो,इंदौर का या फिर भोपाल का इसके लिए जिम्मेदार लोगों की पहली कोशिश यही रहती है कि किसी भी तरह से इसे नकार दिया जाए. यह महज लापरवाही या अपनी खाल बचा लेने का मामला नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध उस राजसत्ता और व्यवस्था की प्रकृति से है जो अपने आपको “जनता द्वाराजनता के लिएजनता का शासन होने का दावा करता है. सबसे बुनियादी बात तो यह है कि इन त्रासदियों के लिए जिम्मेदार उन लोगों की जवाबदेही सीधे तौर पर तय हो जिनके पास सब कुछ तय करने का अधिकार है और जब एक बार जवाबदेही तय हो जाए तो उसे कड़ाई से लागू भी किया जाये .

By जावेद अनीस

वरिष्ठ स्तंभकार

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