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विश्व पर्यावरण दिवस 2018: पर्यावरण को निगल जाएंगे शहरों में खड़े कचरे के पहाड़?

world environment day 2018

आज हम विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं और संभवत: इन पंक्तियों को पढऩे से ठीक पहले आपके कानों में कचरा एकत्रित करने वाले सफाईकर्मी की आवाज आई होगी. अक्सर जब समाज का सबसे जरूरी काम करने वाले ये मेहनतकश अल्सुबह अपने काम पर निकलते हैं, तो हम कहते हैं कि कचरे वाले आ गए हैं, लेकिन असल में कचरे वाले हम हैं. वे तो हमारा कचरा साफ करने वाले सफाईकर्मी हैं, जो हमारे गंदगी से बजबजाते शहरों, महानगरों को साफ रखने की जीतोड़ कोशिश करते हैं. पर्यावरण दिवस पर किसी भी विमर्श से पहले हमें सबसे पहले यह बात समझनी होगी, क्योंकि हमारे पर्यावरण की खूबसूरती असल में हमारी सफाई से गहरे अर्थों में जुड़ी हुई है.

कचरा बन रहा है मुसीबत

आज हमारे शहरों की गंदगी को साफ करने का दारोमदार पूरी तरह से विभिन्न नगर निगमों, नगर पालिकाओं आदि पर है. आमतौर पर किसी शहर के 95 फीसदी हिस्से को उसका नगर निगम या नगर पालिका साफ करता है. कुछ बाहरी इलाकों जो असल में शहर का हिस्सा ही होते हैं, लेकिन उन्हें गांव का रुतबा हासिल होता है और वे तकनीकी तौर पर नगर प्रशासन की सीमाओं से बाहर माने जाते हैं. नगरों की सफाई में कचरा प्रबंधन एक बड़ी बाधा है, और अगर हम इसे ठीक ढंग से निपटा पाएं तो सफाई के साथ-साथ पर्यावरण को बचाने के प्रति अपनी महत्वपूर्ण नागरिक जिम्मेदारी को भी हम ठीक ढंग से अदा कर सकते हैं.

                                                                                                

कचरा मचाने की होड़

असल में, आज नगर निगमों की एक बड़ी समस्या कचरा प्रबंधन ही हैं. कचरे की ढुलाई और इसके निष्पादन पर जितना पैसा खर्च होता है, वह एक सामान्य छोटे शहर के पूर्ण प्रबंधन और संचालन से भी कई गुना ज्यादा होता है.
हमारे शहरों में कचरा उत्पादन को लेकर एक होड़ मची है और यह बढ़ती ही जा रही है. जैसे दिल्ली का ही उदाहरण लें, तो साल 1994-95 में दिल्ली का कुल कचरा उत्पादन 4000 मीट्रिक टन था, जो 2002 में बढ़कर 8000 मीट्रिक टन हो गया और इसके 2020 तक 23 हजार मीट्रिक टन तक पहुंचने के आसार हैं. यही हाल मुंबई, कोलकाता और चेन्नई जैसे महानगरों का है.

दूसरे दर्जे के शहरों की बात करें तो भोपाल, इंदौर जैसे शहरों का कचरा भी 2020 तक 10 हजार मीट्रिक टन को पार कर जाएगा. 1995 में प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन 0.45 किग्रा था, जो अब बढ़कर 1 किग्रा से भी ज्यादा हो गया है. दुकानों और संस्थानों में यह बढ़कर 3 किलो प्रति व्यक्ति तक हो जाता है. ऐसे में देखना जरूरी हो जाता है कि हम अपने कचरे को निपटाने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाते हैं.

नहीं होती कचरे की रिसाइक्लिंग

दरअसल, एक आदर्श व्यवस्था के तहत पहली जरूरत तो यह है कि हम कचरे का उत्पादन कम से कम करें, दूसरी बात, उत्पादित कचरे में से ज्यादा से ज्यादा का पुनर्नवीनीकरण (रिसाइक्लिंग) हो, तीसरा बिंदू है कचरे के निष्पादन की सुरक्षित और आसान प्रक्रिया और अंतिम बात सभी क्षेत्रों तक पहुंच.

इसके बरअक्स फिलहाल हमारे नगर निगम या नगर पालिकाएं जो परंपरागत तकनीक अपना रहे हैं, उसमें सबसे पहले तो घरों से कचरा इकट्ठा किया जाता है, इसके बाद उसे कचरा केंद्र या डिब्बे तक पहुंचाया जाता है. इसके बाद फिर उस कचरे को निष्पादन केंद्र तक ले जाया जाता है, जहां उसका अंतिम निपटान किया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में कचरे का उत्पादन कम करने और अधिकतम कचरे की रिसाइक्लिंग छूट जाती है. यह प्रक्रिया दशकों से जारी है और आज हम इसी का खामियाजा भुगत रहे हैं.

साल 2000 में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने कचरा प्रबंधन के लिए कुछ नियम बनाए थे. इनमें कचरे का संग्रहण, पृथक्करण, भंडारण और संबंधित निकाय के निष्पादन केंद्र तक परिवहन संबंधी नियम शामिल थे. इन नियमों में भी अनौपचारिक क्षेत्र के कचरे के लिए, जो कि हमारे देश में बहुत बड़ा है, रिसाइक्लिंग पर कुछ नहीं कहा गया था.

Image source: flickr.com
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कैसे हटेंगे कचरे के पहाड़

हम कचरे का जिस ढंग से निष्पादन कर रहे हैं उसमें असल में हम कचरे के नए-नए पहाड़ निर्मित कर रहे हैं. चाहे वह दिल्ली में गाजीपुर, ओखला जैसी जगहों पर हों, या फिर भोपाल में भानपुर और इंदौर में देवगुराडिय़ा जैसी जगहों पर हों. अगर इसी तरह से हम कचरे का उत्पादन और निष्पादन करते रहे तो हर शहर के करीब हमें सैकड़ों वर्ग किमीमीटर का इलाका सिर्फ कचरा फेंकने के लिए चाहिए होगा.

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के प्लानिंग बोर्ड एनसीआरपीबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2021 तक दिल्ली के कचरे को फेंकने के लिए 28 वर्ग किमी की जगह चाहिए और 2050 तक यह बढ़कर 100 किमी हो जाएगी. यही हाल हमारे अन्य बड़े शहरों का भी है. यानी हर शहर के करीब हमें 100-50 किमी का क्षेत्र सिर्फ कचरे के पहाड़ के लिए बनाना होगा.

विकराल समस्या बन चुका है कचरा

जाहिर है कचरा एक बड़ी समस्या है और इससे निपटने के लिए हमें जिस मुस्तैदी, प्रबंधन और इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह फिलहाल दिखाई नहीं देती. हालांकि इस समस्या से बेहतर प्रबंधन के जरिये बहुत जल्द और आसानी से छुटकारा पाया जा सकता है. पहली समस्या तो नियमन की ही है. कचरा प्रबंधन और उसके नियमों को बिल्कुल साफ और उद्देश्यप्रद होना जरूरी है. कम से कम कचरा और अधिकतम कचरे की रिसाइक्लिंग की तर्ज पर हम इस समस्या के आधे हिस्से पर काबू पा सकते हैं.

Image source: pixabay.com
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क्या होती है रिसाइक्लिंग

रिसाइक्लिंग के बारे में यह जानना भी जरूरी है कि भारत में 50 प्रतिशत कचरा कार्बनिक है, जिसे कंपोस्ट किया जा सकता है और 30 प्रतिशत कचरा रिसाइक्लिंग के योग्य है. 2 अक्टूबर 2001 को दिल्ली में प्लास्टिक बैग और नॉन बायोग्रेडेबल कचरे के नियमन के लिए एक कानून लाया गया, लेकिन इसके पालन के लिए प्रभावी तंत्र विकसित नहीं किया गया. यही हाल देश के अन्य शहरों में भी है. प्लास्टिक के उपयोग को नियंत्रित किए बिना कचरा निष्पादन की किसी भी प्रक्रिया का अंतिम परिणिति तक पहुंचना असंभव है.

किस तरह का कचरा है देश में

माना जाता है कि हमारे देश के कचरे में 11 प्रतिशत तक धातु, रबर और कपड़े आदि होते हैं और 5 प्रतिशत कागज या कागज से बने उत्पाद हैं. इसी तरह इसमें प्लास्टिक की मात्रा 1 प्रतिशत तक पाई जाती है. हालांकि जमीनी हकीकत उलट है और कचरे में प्लास्टिक की मात्रा कहीं ज्यादा है और कागज की मात्रा भी तेजी से बढ़ रही है. सामान्यत: कागज और प्लास्टिक के बीच 5-1 का अनुपात ठीक माना जाता है, यानी यदि पांच हिस्सा कागज है, तो उसमें एक हिस्सा प्लास्टिक की मात्रा हानिकारक श्रेणी में नहीं आती है.

क्या है खतरा?

बहरहाल, कचरे के कई हिस्से हैं और यह महज घर से बाहर कर देने भर से कम खतरनाक नहीं हो जाता है. इसी क्रम में खतरनाक श्रेणी का कचरा भी है, जो अस्पतालों आदि से निकलता है और फिर डंपिंग यार्ड में पहुंचकर भी कचरे से कई रासायनिक गैस निकलती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं. यानी कचरे घर से बाहर जाने के बाद भी पूरी तरह निष्पादित न होने तक इंसानों के लिए खतरनाक बना रहता है.

उठाने होंगे बेहतर कदम

हमें जल्द से जल्द इस समस्या की ओर ध्यान देना चाहिए. साथ ही हमारे समाज के जो लोग इस कचरे के निष्पादन, प्रबंधन में जुटे हुए हैं, उनके प्रति सम्मान भी हमारे दिलों में होना चाहिए. क्योंकि जिस कचरे को हम उत्पादित करते हैं, वह पूरे पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है और उसे बेहतर ढंग से नगरों से दूर ले जाकर हमारे सफाईकर्मी एक बेहद महत्वपूर्ण और जरूरी काम कर रहे हैं. अगली बार जब आप कचरा फेंके तो यह भी ध्यान रखें कि इसे शहर से दूर ले जाने वाला आपके भविष्य को सुंदर बनाने की कोशिश कर रहा है.

(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के गोल्ड मेडलिस्ट छात्र रहे हैं और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वे दिल्ली में साझा मंच एवं हैजार्ड सेंटर के साथ लगभग 3 वर्ष तक शहर की योजना, रोजगार एवं शहरी गरीबों के मुद्दों पर काम कर चुुुुके हैं. उन्होंने सिंगरौली में महान संघर्ष समिति में सक्रिय नेतृत्व किया और जंगल को बचाने और अदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ते हुए 69 गांवों के लगभग एक लाख परिवारों को उजडऩे से बचाया.) 

By पंकज सिंह

पंकज सिंह जन्मदिन: 31 जुलाई 1985 शिक्षा: जवाहर नवोदय विद्यालय के छात्र रहे। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से स्नातक और टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस्स) से गोल्ड मेडल के साथ मास्टर्स डिग्री। श्री पंकज सिंह ने दिल्ली में साझा मंच एवं हैजार्ड सेंटर के साथ लगभग 3 वर्ष तक शहर की योजना, रोजगार एवं शहरी गरीबों के मुद्दों पर काम किया। इसके बाद उन्होंने सिंगरौली में महान संघर्ष समिति में सक्रिय नेतृत्व किया और जंगल को बचाने और अदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ते हुए 69 गांवों के लगभग एक लाख परिवारों को उजडऩे से बचाया।

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