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Right to Education Act के 9 साल : कितनी बदली भारत में शिक्षा?Right to Education Act के 9 साल : कितनी बदली भारत में शिक्षा?

9 साल पहले यानी 4 अगस्त 2009 को शिक्षा के अधिकार कानून यानी की राइट टू एजुकेशन एक्ट संसद में पास हुआ. यह बीते दशकों में इंडिया की बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन खामियों और इसके क्रियान्वयन में सरकारों की उदासीनता से इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिले सके. इसे लेकर उम्मीदें टूटी हैं और आशंकाएं सही साबित हुई हैं. अब खतरा इसे लागू करने वाले सरकारी स्कूलों के अस्तित्व पर ही आ चुका है. यह महत्वपूर्ण कानून लापरवाही और गड़बड़ियों का शिकार बन कर रह गया है.

जमीनी आंकड़े और कैग की रिपोर्ट

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने जुलाई 2017 में संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में राइट टू एजुकेशन एक्ट के क्रियान्वयन पर कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक कई राज्य सरकारोँ को यह भी जानकारी नहीं है कि उनके राज्य में 0 से लेकर 14 साल की उम्र के बच्चोँ की संख्या कितनी है और उनमें से कौन स्कूल जा रहा है और कितने बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं.

कौन है जिम्मेदार?

समाज और सरकार दोनों ही इसके लिए जिम्मेदार हैं. हालांकि इससे स्कूलों का इंफ्रास्ट्रक्चर, टीचर्स-स्टूडेंट की संख्या आदि को लेकर स्कूलों में सुधार देखने को मिलता है, लेकिन पर्याप्त और प्रशिक्षित टीचर्स की कमी, उनसे दूसरे काम कराया जाना, नामांकन के बाद स्कूलों में बच्चों की रुकावट, बीच में पढ़ाई छोड़ने देने की बढ़ती दर और संसाधनों की कमी जैसी समस्याएं बनीं हुई हैं.

सबसे चिंताजनक बात इस दौरान शिक्षा की गुणवत्ता और सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था पर भरोसे में कमी का होना है. नीति आयोग के मुताबिक़ वर्ष 2010-2014 के दौरान सरकारी स्कूलों की संख्या में 13,500 की वृद्धि हुई है, लेकिन इनमें दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या 1.13 करोड़ घटी है. दूसरी तरफ प्राइवेट स्कूलों में एडमिशन लेने वालों की संख्या 1.85 करोड़ बढ़ी है.

शिक्षकों की भारी कमी

देश भर के स्कूलों में टीचर्स की भारी कमी है और बड़ी संख्या में बड़ी संख्या में स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं. इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता और स्कूलों में बच्चों की रुकावट पर देखने को मिल रहा है. वर्ल्ड बैंक डेवेलपमेंट रिपोर्ट 2018- लर्निंग टू रियलाइज एजुकेशंस प्रॉमिस में दुनिया के उन 12 देशों की लिस्ट जारी की गई है, जहां की शिक्षा व्यवस्था सबसे बदतर है. इस लिस्ट में इंडिया दूसरे नंबर है. रिपोर्ट के अनुसार कई सालों तक स्कूलों में पढ़ने के बावजूद लाखों बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते हैं. वे गणित के आसान सवाल भी नहीं कर पाते हैं. आखिर चूक कहां हुई है?

लचर क्रियान्वयन

शिक्षा अधिकार कानून को लागू करने में भी भारी कोताही देखने को मिली है. राइट टू एजुकेशन फोरम की रिपोर्ट की बताती है कि 7 साल बाद केवल 9.08% स्कूलों में ही इस कानून के प्रावधान पूरी तरह से लागू हो पाए हैं. 2017 में जुलाई में कैग द्वारा संसद में पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार आरटीई को लागू करने वाली संस्थाओ और राज्य सरकारों द्वारा लगातार लापरवाही बरती गई है.

केंद्र सरकार द्वारा इस कानून के क्रियान्वयन पर खर्च का अनुमान तैयार करना था, लेकिन इसे अभी तक पूरा नहीं किया गया है. इसलिए प्रावधान होने के बावजूद आरटीई के लिए कोई अलग बजट नहीं रखा गया, बल्कि इसे सर्वशिक्षा अभियान के बजट में ही शामिल कर लिया गया. रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि कैसे इसके तहत राज्यों को आवंटित राशि खर्च ही नहीं हो पाती है.

रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2010-11 से 2015-16 के बीच फंड के इस्तेमाल में 21 से 41 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई है और राज्य सरकारें कानून लागू होने के बाद के छह सालों में उपलब्ध कराए गए कुल फंड में से 87000 करोड़ रुपये का इस्तेमाल ही नहीं कर पाई हैं.

25 का हेर-फेर

राइट टू एजुकेशन एक्ट अपने मूल स्वरूप में ही दोहरी शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार करता है. जबकि इसे तोड़ने की जरूरत थी. निजी स्कूलों में 25% रिजर्वेशन का प्रावधान मिडिल क्लास के बाद गरीब और वंचित वर्गों के लोगों का सरकारी स्कूलों के प्रति भरोसा तोड़ने वाला कदम साबित हो रहा है. यह प्रावधान एक तरह से शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और इससे सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर प्राइवेट स्कूलों की ओर हो जाता है.

प्राइवेट की तुलना में सरकारी स्कूल

इधर, जो परिवार थोड़े-बहुत सक्षम हैं वे अपने बच्चों को पहले से ही प्राइवेट स्कूलों में भेज रहे हैं, लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर है, कानून द्वारा उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया जा रहा है. लोगों का सरकारी स्कूलों के प्रति विश्वास लगातार कम होता जा रहा है, जिसके चलते साल दर साल सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या घटती जा रही है. ऐसा नहीं है कि इससे पहले अभिभावकों में निजी स्कूलों के प्रति आकर्षण नहीं था.

दरअसल, पिछले लंबे समय से निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना स्टेटस सिम्बल बन चुका है, लेकिन इस प्रावधान का सबसे बड़ा सन्देश यह जा रहा है कि सरकारी स्कूलों से अच्छी शिक्षा प्राइवेट स्कूलों में दी जा रही है, इसलिए सरकार भी बच्चों को वहां भेजने को प्रोत्साहित कर रही है. इस प्रकार पहले से कमतर शिक्षा का आरोप झेल रहे सरकारी स्कूलों में स्वयं सरकार ने कमतरी की मुहर लगा दी है. यह प्रावधान सरकारी शिक्षा के लिए भस्मासुर बन चुका है. यह एक गंभीर चुनौती है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि अगर सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था ही ध्वस्त हो गई तो फिर शिक्षा का अधिकार की कोई प्रासंगिकता ही नहीं बचेगी.

टीचर्स की कमी और उनसे गैर-शिक्षण काम कराया जाना

लोकसभा में 5 दिसंबर 2016 को पेश किए आंकड़ों के मुताबिक़ गर्वैमेंट प्राइमरी स्कूलों में 18 फीसदी और मिडिल स्कूलों में 15 फीसदी टीचर्स के पद खाली हैं. बढ़ी संख्या में स्कूल केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं. दूसरी तरफ टीचर्स हर साल औसतन सौ दिन गैर-शैक्षणिक कार्यों कराया जाता है. उनका अधिकांश समय डिपार्टमेंटल इंफॉरमेंशन, मध्याह्न भोजन की व्यवस्था संबंधी कार्य, निर्माण कार्य आदि में भी खपा दिया जाता है. इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर देखने को मिला है.

GDP का शिक्षा पर कितना खर्च करता है इंडिया 

राइट टू एजुकेशन एक्ट लागू होने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एजुकेशन प्रायरटी नहीं बन सका है. सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउन्टबिलिटी’ (सीबीजीए) के मुताबिक वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान स्कूल एजुकेशन पर सेंट्रल गर्वेमेंट कुल शिक्षा खर्च इंडिया के जीडीपी का 2.68 फीसदी था.

असोसिएटेड चैंबर आफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री(एसोचैम) की रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 से आगे नहीं बढ़ सकी है, जो कि अपर्याप्त है. रिपोर्ट में कहा किया गया है कि यदि भारत ने अपनी शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं किए तो विकसित देशों की बराबरी करने में कम से कम छह पीढ़ियां (126 साल) लग सकते हैं.

क्या करती है यूएन की रिपोर्ट 

रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि इंडिया को यूएन द्वारा सुझाए गए खर्च के स्तर को हासिल करना चाहिए. बता दें कि यूएन सिफारिश के मुताबिक हर देश को अपनी जीडीपी का कम से कम छह फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना चाहिए. कुल मिलाकर आधे-अधूरे और भ्रामक शिक्षा की ग्यारंटी से बात नहीं बनने वाली है. पहले तो इस कानून की जो सीमाएं हैं उन्हें दूर किया जाए, जिससे यह वास्तविक अर्थों में इस देश के सभी बच्चों को सामान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाला अधनियम बन सके. फिर इसे  ठीक से लागू किया जाए.

दूसरी ओर  समाज की भी बनती है जिम्मेदारी जरूरत इस बात की भी है कि कानून की इस भावना को ग्रहण करते हुए इस पर अपना दावा जताया जाए इसे और बेहतर बनाने की मांग की जाए. जब तक नागिरक इस कानून को अधिकार के रूप में ग्रहण नहीं करेंगें तब तक सरकारों को इसे लागू करने के पूरी तरह से जवाबदेह नहीं बनाया जा सकेगा और वे निजीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ जाएंगी.

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By जावेद अनीस

वरिष्ठ स्तंभकार

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