हाल ही में हांगकांग से प्रकाशित ‘साउथ चाइना मार्निंग पोस्ट’ में चीनी इंजीनियरों के कमाल बखानते हुए एक आलेख प्रकाशित हुआ जिसमें यह शेखी बघारी गई थी कि चीन तिब्बत की पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली चीन-तिब्बत, बांग्लादेश और भारत के बीच बहने वाली नदी ‘सांग्पो’ जो भारत में ‘ब्रह्मपुत्रा नदी’ कहलाती है को एक हजार किलोमीटर लम्बी सुरंग बना कर चीनी क्षेत्रा के शिनजियांग प्रांत के रेगिस्तानी क्षेत्रा तक ले जाकर अपने इस सूखे क्षेत्र को हरा-भरा करेगा.
इस आलेखनुमा खबर में यह दर्शाया गया है कि चीनी इंजीनियर प्रवृत्ति की संरचना को भी बदलने में सक्षम हैं और वे अपनी अपार क्षमताओं के चलते सदियों से चली आ रही प्राकृतिक रचनाओं में भी आमूल-चूल परिवर्तन करने की शक्ति रखते हैं. आलेख में दावा किया गया है कि ब्रह्मपुत्रा के जल से शिनजियांग प्रांत कैलीफोर्निया से भी अधिक हराभरा और समृद्ध हो जाएगा.
इस से पहले भी चीन से छन-छन कर खबरें आती रही हैं कि चीन सांग्पो (ब्रह्मपुत्रा) पर बड़े-बड़े बांध बनाकर ब्रह्मपुत्रा के स्वाभाविक बहाव को तो प्रभावित कर ही रहा है, बल्कि भारत में कृत्रिम बाढ़ लाने के लिए एक हथियार के रूप में उन्हें विकसित भी कर रहा है. भारत के विरोध प्रकट करने पर चीन इसके जवाब में यह आश्वासन देता रहा है कि वह ब्रह्मपुत्रा पर कोई बांध नहीं बना रहा है. वह तो ब्रह्मपुत्रा की सहायक नदियों पर छोटे-छोटे बांध बना रहा है जिस से ब्रह्मपुत्रा का स्वाभाविक बहाव प्रभावित होने की कोई सम्भावना नहीं है.
चीन की यही रही है रणनीति
दरअसल, चीन भारत को चारों ओर से घेरने का प्रयास पिछले कई वर्षों से अनवरत रूप से कर रहा है. अपनी इस नीति के चलते उसने पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश से विभिन्न समझौते कर भारत को घेरने की शुरुआत तो कर ही दी है. पिछली सरकारों की दब्बू और अस्पष्ट विदेश नीतियों के चलते वह इन देशों से समझौते करने में सफल रहा है किन्तु जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है पड़ोसी देशों से भारत के संबंधों में सुधार की सम्भावनाओं में आशातीत अभिवृद्धि हुई है. पाकिस्तान की जन्मजात भारत दुश्मनी को अगर छोड़ दें तो अन्य पड़ोसी देशों का विश्वास और भरोसा भारत पर बढ़ा है और अधिकांश ने वक्त आने पर भारत का समर्थन कर अपनी भारत नीति को स्पष्ट भी किया है जिस से चीन को काफी निराशा का सामना भी करने का कष्टकर माहौल झेलना पड़ा है.
भारत पर दबाव बनाने के लिए चीन ने अभी हाल में ही डोकलाम काण्ड को सफलतापूर्वक करने का प्रयास किया गया किन्तु मोदी सरकार की स्पष्ट विदेशनीति और भारतीय सेना की जन्मजात बहादुरी ने उसे अपने कदम पीछे हटाने के लिए विवश होना पड़ा. भारत पर दबाव बनाने के लिए चीन ने समुद्र में लडाकू बेड़ा भी उतारा. अपने अस्त्र-शस्त्रों की ताकत का भोंडा प्रदर्शन करना पड़ा और वह केवल यहीं नहीं रुका. उसने भारत पर राजनैतिक और कूटनीतिक सभी तरह के दांव आजमाने के षडयंत्रा भी किए लेकिन जब उसने स्पष्ट रूप से समझ लिया कि भारत की सेना और भारत सरकार अब दबाव में आने वाली नहीं है तो उसने अपनी इज्जत का भ्रम रखने के लिए अपनी फौजों को तो वापस किया ही किया, भारत को यह आश्वासन भी दिया कि भारत की सम्प्रभुता पर वार करने का उसका कोई इरादा नहीं था और न ही भविष्य में इस प्रकार की किसी रणनीति की योजना पर कोई कार्य हो रहा है.
दरअसल, इतिहास गवाह है कि चीन पर जिसने भी विश्वास किया, वह उसके मजबूत जाल में उलझ कर रह गया और अपना सर्वस्व खो बैठा है. इसका सबसे ताजा उदाहरण तिब्बत और पाकिस्तान के रूप में देखा जा सकता है. तिब्बत को तो वह हड़प कर ही चुका है. पाकिस्तान को सब्जबाग दिखा कर अक्साई चिन जिस पर पाकिस्तान का भारतीय क्षेत्र पर नाजायज कब्जा चल रहा है, का काफी बड़ा हिस्सा और ग्वादर पोर्ट तक गलियारे के रूप में बलोच और सिंध के कुछ भाग पर कब्जा जमा ही चुका है. अब अधिक देर नहीं है जब चीन पाकिस्तान के एक बड़े हिस्से पर अपना हक जताएगा और फिर उसके एक बड़े हिस्से बलूचिस्तान और सिंध के हिस्से अपने कब्जे में ले लेगा. केवल पंजाब ही पाकिस्तान के वजूद के रूप में दुनिया के नक्शे पर रह जाएगा.
भारत के हिस्सों पर अधिकार
भारत के भी एक बहुत बड़े हिस्से पर चीन अपना हक जताता रहा है किन्तु भारत स्वयं एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है इसलिए वह भारत से सीधे उलझने से बचता रहा है. फिर भी 1962 के आक्रमण से वह भारत के पूर्वोत्तर का एक छोटा सा हिस्सा दबा ही चुका है. ऐसी परिस्थिति में वह सीधी लड़ाई से बच कर भारत को दबाव में लेने के लिए इस प्रकार के नाटक कर रहा है कि भारत दबाव में आए और उससे उसकी शर्तों के अधीन सीमा समझौता कर उसके बताए क्षेत्रा से अपना कब्जा छोड़ कर उसका स्वामित्व चीन को दे दे किन्तु वह नहीं जानता कि मोदी की सरकार इस प्रकार के दबावों में आने वाली नहीं है और न ही अंतिम सांस तक लड़ने से पीछे हटने वाली है.
जहां तक ब्रह्मपुत्रा का सवाल है, भारत की इस बड़ी नदी पर बहुत निर्भरता है और एक तरह से यह भारत के पूर्वी हिस्से की जीवन रेखा के रूप में विद्यमान है. चीन इस बात को जानता है और इसे भारत की दुखती नस समझ कर गाहे-बगाहे दबाने की अपनी शरारत करता रहता है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विकास की होड़ में चीन ने पर्यावरण की चिंता कभी नहीं की है और उसका एक बहुत बड़ा क्षेत्रा पर्यावरण के लिहाज से भारी मुसीबत में है किन्तु वह पर्यावरण को प्राकृतिक संसाधनों से प्रतिपूरित करने के बजाय कृत्रिम संसाधनों से प्रतिपूरित करने की नीति पर चल रहा है जिसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि स्वयं चीन के अपने क्षेत्रा में जीवित पचास हजार नदियों में से आधी से अधिक सूख कर मृत हो चुकी हैं. इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी चीन को अक्ल नहीं आ रही है और वह प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ कर ब्रह्मपुत्रा जैसी महान नदी का बहाव सुरंगों के माध्यम से बदलने के सपने देख रहा है.
यहां इस तथ्य का उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि तिब्बत के पठार से कई नदियां निकली हैं जिनसे चीन अपनी जरूरतों के हिसाब से छेड़छाड़ करता रहा है. अपने स्वार्थ के लिए चीन अंतर्राष्ट्रीय नियमों और संधियों की किसी हद तक परवाह करने का कष्ट भी नहीं उठाता है. इसके शिकार उसके पड़ोसी देश वियतनाम और लाओस जैसे देश भी हो चुके हैं. समय के हिसाब से चीन की बिजली और पानी की आवश्यकता बढती जा रही है और वह उसके क्षेत्रा से होकर बहने वाली नदियों से छेड़छाड़ करने की योजनाएं बनाने में गंभीरता से लगा है जिसकी झलक ‘साउथ चाइना मार्निंग पोस्ट’ में छपे आलेखनुमा खबर से मिलती है.
भारत को उठाना होंगे ये कदम
यह स्थिति किसी भी दशा में भारत के हित में नहीं है. इसलिए भारत को चीन से पीडि़त वियतनाम, लाओस, बांग्लादेश आदि देशों को साथ में लेकर सामूहिक विरोध करना चाहिए और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी एक प्रभावी दबाव बनाना चाहिए वरना चीन जैसा सशक्त दुश्मन अपनी मनमर्जी कर बैठेगा और हम ताकते रह जाएंगे. अब तत्काल आवश्यकता इस बात की है कि भारत सरकार इस खबर को आधार बना कर अभी से चीन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घेरने का कूटनीतिक कार्य प्रारम्भ कर दे और अपने समर्थक राष्ट्रों और चीन के दुश्मन राष्ट्रों का एक मंच बना कर चीन को रक्षात्मक स्थिति में लाकर खड़ा करदे वरना एक ऐसी अपूरणीय क्षति हो जाएगी जिसकी प्रतिपूर्ति सम्भव ही नहीं होगी.
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