एक दौर ऐसा भी था जब कला माध्यमों में महिलाओं की भागीदारी लगभग न के बराबर थी. नगण्यता के इस दौर को उन्नीसवीं शताब्दी के दो प्रमुख प्रतिभाशाली कलाकारों के काम को देखकर समझा जा सकता है. ये कलाकार थे महान चित्रकार राजा रवि वर्मा और दूसरे थे गोविंदराव फालके, जिनको भारतीय सिनेमा का पितामह कहा जाता है.
कला और रागरंग से दूर थी महिलाएं
उस दौर में सभ्य समाज की महिलाएं अमूमन कला और रागरंग के अवसरों से दूर ही रखी जाती थीं. इन माध्यमों में उनका प्रवेश हेय नजरिए से भी देखा जाता था. ऐसे में जहां राजा रवि वर्मा अपने चित्र मॉडल के लिए गणिका की सहायता लेना पड़ी. वहीं दादा साहेब नायिका पात्रों के लिए पुरुषों की मदद लिया करते थे.
समय के साथ कला माध्यमों से जुड़ी महिलाएं
समय के साथ सामजिक दृष्टिकोण भी बदला और महिलाएं कला माध्यमों में हिस्सा लेने लगी. आज सिर्फ महिला प्रधान फिल्मों की बात करें तो यह अपने आप में एक जॉनर बन चुका है. हां ये बात और है कि आज भी महिलाओं की स्थिति और उन्हें लेकर बने दृष्टीकोण में विशेष बदलाव नहीं हुआ है.
पुरुष प्रधान समाज को #metoo बना चुनौती
पुरुष समाज सैंकड़ों वर्षों से पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रसित रहा है, जिसे अब जाकर ‘मीटू’ से चुनौती मिलने लगी है. बॉलीवुड में लंबे समय तक ऐसी फिल्में बनती रहीं, जिसमें पुरुष की लंपटता और नायिका की सहनशीलता को केंद्र में रखा गया था.
इन फिल्मों ने मुंबई से हजार किलोमीटर दूर बैठे दर्शकों के अवचेतन में भी यह बात बैठा दी थी कि वे जो मर्जी आए कर सकते हैं और पीड़ित लोकलाज के भयवश अपना मुंह बंद रखेगी. इस विचार को झटका तब लगा जब ‘इंसाफ का तराजू’ की नायिका अपने दुष्कर्मी को मौत के घाट उतार देती है.
इसी कड़ी में ‘निकाह’ की नायिका अपने तलाक देने वाले शौहर के सामने सवालों की बौछार कर अपने व्यक्तित्व को सहेजती है. ये दोनों ही फिल्में ‘कल्ट’ फ़िल्में मानी जाती हैं. जिसकी वजह से उस दौर के समाज में एक जनचेतना बनने की शुरुआत हुई थी.
नारी प्रधान फिल्मों से समाज में क्रांति
नारी की शक्ति को दर्शाने वाली इन फिल्मों का आईडिया हॉलीवुड फिल्म ‘आई स्पिट ऑन योर ग्रेव’ के कथानक से आया होगा. जिसके अब तक पांच रीमेक बन चुके है. पुरुष की लंपटता और कामुकता के प्रतिकार के लिए हिंसा का सहारा भी लेना पड़े तो वह जायज माना जाना चाहिए।
‘आई स्पिट ऑन योर ग्रेव’ इसी बात को स्थापित करती है. साल 2016 में आई ‘पिंक’ का बूढ़ा वकील अदालत में दलील देता है कि महिला की एक ‘ना’ को ना ही मानकर पुरुष को अपने दायरे में सिमट जाना चाहिए. उसकी ना को उसके चाल-चलन और चरित्र से जोड़कर फायदा उठाना गलत ही माना जाएगा.
अरुणा राजे की ‘रिहाई’, प्रकाश झा की ‘मृत्युदंड’, फरहान अख्तर की ‘हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड”, श्रीजीत मुखर्जी की ‘बेग़मजान’ व अलंकृता श्रीवास्तव की ‘लिपस्टिक अंडर माय बुरका’ ऐसी फिल्में हैं, जिनमें शोषित नायिका प्रतिकार स्वरूप अपना रास्ता चुन लेती हैं. इन फिल्मों ने समाज के अवचेतन में गहरा प्रभाव छोड़ा है.
#metoo के बाद क्या होंगे हालात
‘मीटू’ अभियान के बाद समाज में बनने वाले हालातों पर भी विचार करने की जरूरत है, हो सकता है नियोक्ता अपने संस्थान में महिलाओं को काम देने से ही इंकार कर दें. क्या पता आज जिस महिला को काम दिया है वह कल कोई आरोप लगाकर सामने वाले के चरित्र और व्यवसाय दोनों को ही बर्बाद कर दे.
हालांकि इस मामले में इस तरह की आशंका करना थोड़ा जल्दबाजी भरा निर्णय होगा, परन्तु सोशल मीडिया पर इस सोच के समर्थन में विचारों का आदान-प्रदान होने लगा है. कब कौन सा विचार सामूहिक सोच में बदल जाए यह कहा नहीं जा सकता.
#metoo से बचने मानहानि का सहारा
मीटू में उजागर कई चेहरे अपना पक्ष रखने के साथ ही मानहानि के दावे और सामजिक दबाव बनाने की कवायद कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश लोग अपने को बचाने में सफल भी हो जाएं, क्यों कि बेहद खर्चीली न्याय व्यवस्था और स्वयं को पीड़ित साबित करने की जिम्मेदारी इन पीड़िताओं को ही उठानी है.
बदलनी होगी पितृसत्तात्मक सोच
विष्णु खांडेकर ने अपने उपन्यास में महाभारत से जुड़े एक किरदार “राजा ययाति” के भोग विलास में आसक्त होने के बारे में लिखा है. जिसमें बताया गया है कि राजा ययाति ने अपने युवा पुत्र का यौवन उधार लेकर अपनी कामाग्नि को तुष्ट किया था.
मौजूदा समय में भी हमारे आसपास मंडरा रहे ययाति के वंशजों के मुखोटे हर हाल में उतारना होंगे. अन्यथा दादा साहेब फाल्के और राजा रवि वर्मा ने जिस कठिनाई में अपना हुनर निखारा था, आज इक्कीसवी सदी में वैसे हालात न ही बने तो बेहतर होगा. पुरुषों को अपनी पितृसत्तात्मक सोच बदलनी ही होगी.
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